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श्रीमद् राजचन्द्र
इसीलिये 'अर्थ' और 'काम' बादमे रखे गये हैं ।
गृहस्थाश्रमी सर्वथा धर्मसाधन करना चाहे तो वैसा नही हो सकता, सर्वसगपरित्याग ही चाहिये ।। गृहस्थके लिये भिक्षा आदि कृत्य योग्य नही है । और गृहस्थाश्रम यदि
[ अपूर्ण]
बंबई, पौष वदी ९, मगल, १९४६ आपका पत्र आज मिला, समाचार विदित हुए।
किसी प्रकारसे उसमे शोक करने जैसा कुछ नही है। आप शरीरसे सुखी हो ऐसा चाहता हूँ। आपका आत्मा सद्भावको प्राप्त हो यही प्रार्थना है।
मेरा आरोग्य अच्छा है । मुझे समाधिभाव प्रशस्त रहता है । इसके लिये भी निश्चित रहियेगा। एक वीतरागदेवमे वृत्ति रखकर प्रवृत्ति करते रहियेगा ।
आपका शुभचिंतक रायचद्र ।
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बबई, पौष, १९४६ आर्य ग्रन्थकर्ताओ द्वारा उपदिष्ट चार आश्रम जिस कालमे देशकी विभूषाके रूपके प्रचलित थे उस कालको धन्य है।
चार आश्रमोका अनुक्रम यह है-पहला ब्रह्मचर्याश्रम, दूसरा गहस्थाश्रम, तीसरा वानप्रस्थाश्रम और चौथा सन्यासाश्रम । परतु आश्चर्यके साथ यह कहना पड़ता है कि यदि जीवनका ऐसा अनुक्रम हो तो वे भोगनेमे आवें। कुल मिलाकर सौ वर्षकी आयुवाला व्यक्ति वैसे ही ढंगसे चलता आये तो वह आश्रमोका उपभोग कर सकता है। प्राचीनकालमे अकालिक मौतें कम होती होगी ऐसा इस आश्रमव्यवस्थासे प्रतीत होता है।
बबई, पौष, १९४६ प्राचीनकालमे आर्यभूमिमे चार आश्रम प्रचलित थे, अर्थात् आश्रमधर्म मुख्यत चलता था । परमर्षि नाभिपुत्रने भारतमे निग्रंथधर्मको जन्म देनेसे पहले उस कालके लोगोंको व्यवहारधर्मका उपदेश इसी आशयसे किया था । उन लोगोका व्यवहार कल्पवृक्षसे मनोवाछित पदार्थ मिलनेसे चलता था, जो अब क्षीण होता जाता था। उनमे भद्रता और व्यवहारकी भी अज्ञानता होनेसे, कल्पवृक्षकी सम्पूर्ण क्षीणताके समय वे बहुत दुःख पायेंगे, ऐसा अपूर्वज्ञानी ऋषभदेवजीने देखा। प्रभुने अपनी परम करुणादृष्टिसे उनके व्यवहारको क्रममालिका बना दी।
___ जब भगवान तीर्थंकररूपमे विहार करते थे, तब उनके पुत्र भरतने व्यवहारशुद्धि होनेके लिये, उनके उपदेशका अनुसरण कर, तत्कालीन विद्वानोसे चार वेदोकी योजना करायी और उसमे चार आश्रमधर्म और चार वर्णको नातिरीतिका समावेश किया। भगवानने परम करुणासे जिन लोगोको भविष्यमे धर्मप्राप्ति होनेके लिये व्यवहार शिक्षा और व्यवहारधर्म बताया था, उन्हे भरतजीके इस कार्यसे परम सुगमता हो गयी।
इसपरसे चार वेद, चार आश्रम, चार वर्ण और चार पुरुषार्थ के सम्बन्धमे यहाँ कुछ विचार करनेकी इच्छा है, उसमें भी मुख्यत. चार आश्रम और चार पुरुषार्थक सम्बन्धमे विचार करेंगे, और अतमे हेयोपादेयके विचारसे द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावको देखेंगे।
चार वेद, जिनमे आर्यगृहधर्मका मुख्य उपदेश था, वे इस प्रकार थे।