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________________ उपदेश नोध ६९३ प्र०-दर्पणमे पडनेवाला प्रतिबिंब मात्र खाली देखाव है या किसी, तत्त्वका बना हुना हे ? , उ०-दर्पणमे पड़नेवाला प्रतिबिम्ब मात्र खाली देखाव नही है, वह अमुक तत्त्वका बना हुआ है। । ..., , .. . ३९ । मोरबी; माघ वदी ९, सोम (रातमे), १९५५ F, कर्मकी मूल प्रकृतियाँ आठ है, उनमे चार घातिनी और चार अघातिनी कही जाती हैं। । ।' ..' चार घातिनीका धर्म आत्माके गुणका घात करना है. 'अर्थात् (१) उस गुणको आवरण करना, अथवा.(२) उस गुणके बल-वीर्यका निरोध करना, अथवा (३) उसे विकल करना है, और इसीलिये उसः' प्रकृतिको 'घातिनी' सज्ञा दी है। । _जो आत्माके गुण ज्ञान और दर्शनका आवरण करता है उसे अनुक्रमसे (१) ज्ञानावरणीय और (१) दर्शनावरणीय नाम दिया है । अन्तराय प्रकृति इस गुणको आवरण नही करती, परन्तु उसके भोग, उपभोग आदिको, उसके बलवीर्यको रोकती है। यहाँ पर आत्मा भोग आदिको, समझता है, जानता-देखता है, इसलिये आवरण नहीं है, परन्तु समझते हुए भी भोग आदिमे विघ्न अन्तराय करती है, इसलिये उसे आवरण नही परतु अतराय प्रकृति कहा है। , ; इस तरह तीन आत्मघातिनी प्रकृतियाँ हुई। ,चौथी, घातिनी प्रकृति, मोहनीय है। यह प्रकृति आवरण नही करतो, परन्तु आत्माको मूच्छित करके, मोहित करके, विकल करती है । ज्ञान-दर्शन होते हुए भी, अंतराय न होते हुए भी आत्माको कभी विकल,करती है, उलटा पट्टा बँधा देतो है, व्याकुल कर देती है, इसलिये इसे मोहनीय कहा है। इस तरह ये चार सर्व घातिनी प्रकृतियाँ कही। दूसरी चार प्रकृतियाँ यद्यपि आत्माके प्रदेशोके साथ लगी हुई है तथा अपना कार्य किया करती है, और उदयके अनुसार वेदी जाती हैं, तथापि वे 'आत्माके गुणको आवरण करनेरूपसे 'या अतराय करनेरूपसे या उसे विकल करनेरूपसे घातक नहीं है, इसलिये उन्हे आघातिनी कहा है। ४० -- - स्त्री, परिग्रह आदिमे जितना, मूर्छाभाव रहता है उतना ज्ञानका तारतम्य न्यून है, ऐसा श्री तीर्थकरने निरूपण किया है। सपूर्ण ज्ञानमे वह मूर्छा नही होती। . 1. श्री ज्ञानीपुरुष ससारमे किस प्रकारसे, रहते हैं ? आँखमे जैसे रज खटकती रहती हे वैसे ज्ञानीको किसी कारणसे या उपाधि प्रसगसे कुछ हुआ हो तो वह मगजमे पाँच दस सेर जितना बोझा हो पडता है । और उसका क्षय होता है-तभी शान्ति होती है। स्त्री आदिके, प्रसगमे आत्माको अतिशय अतिशय समीपता एकदम प्रगटरूपसे भासित होती है। सामान्यरूपसे स्त्री, चदन, आरोग्य आदिसे साता और ज्वर आदिसे असाता रहती है, वह ज्ञानी और अज्ञानी दोनोको समान है । ज्ञानीको उस उस प्रसंगमे हर्प-विषादका हेतु नही होता । ४१. । चार गोलोंके दृष्टातसे जीवके चार प्रकारसे भेद हो सकते है। १ मोमका गोला। २. लाखका गोला। ३. लकडीका गोला। ४. मिट्टीका गोला । *खभातके श्री अवालालभाईकी लिखी नोटमेसे ।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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