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श्रीमद् राजचन्द्र इतना ही परमार्थ है । जिससे ज्ञानीपुरुषकी अनुज्ञासे अथवा किसी सत्संगी जनकी अनुज्ञासे पत्र-समाचारका कारण उपस्थित हो तो वह संयमके विरुद्ध ही है, ऐसा नहीं कहा जा सकता, तथापि आपको साधुने जो पच्चक्खान दिया था, उसके भग होनेका दोष आप पर आरोपित करना योग्य है। यहाँ पच्चक्खानके स्वरूपका विचार नही करना है, परन्तु आपने उन्हे जो प्रगट विश्वास दिलाया, उसे भग करनेका क्या हेतु है ? यदि वह पच्चक्खान लेनेमे आपका यथायोग्य चित्त नही था, तो आपको वह लेना योग्य न था, और यदि किसी लोक-दबावसे वैसा हुआ तो उसका भग करना योग्य नही है, और भग करनेका जो परिणाम हे वह भग न करनेकी अपेक्षा विशेप आत्महितकारी हो, तो भी उसे स्वेच्छासे भग करना योग्य नही है, क्योकि जीव रागद्वेष अथवा अज्ञानसे सहजमे अपराधी होता है, उसका विचारा हुआ हिताहित विचार कई बार विपर्यय होता है। इसलिये आपने जिस प्रकारसे पच्चक्खानका भग किया है, वह अपराधयोग्य है, और उसका प्रायश्चित्त लेना भी किसी तरह योग्य है । "परन्तु किसी प्रकारको ससारबुद्धिसे यह कार्य नही हुआ, और ससारकार्यके प्रसंगसे पत्र-समाचारका व्यवहार करनेकी मेरी इच्छा नही है, यह जो कुछ पत्रादिका लिखना हुआ है, वह मात्र किसी जीवके कल्याणकी बातके विषयमे हुआ है, और यदि वह न किया गया होता तो वह एक प्रकारसे कल्याणरूप था, परन्तु दूसरे प्रकारसे चित्तका व्यग्रता उत्पन्न होकर अन्तर क्लेशित होता था। इसलिये जिसमे कुछ ससारार्थ नहीं है, किसी प्रकारका अन्य वाछा नही है, मात्र जीवके हितका प्रसंग है, ऐसा समझकर लिखना हआ है। महाराज द्वारा दिया हुआ पच्चक्खान भी मेरे हितके लिये था कि जिससे मैं किसी संसारी प्रयोजनमे न पड़ जाऊँ, और उसक लिये उनका उपकार था। परन्तु मैंने ससारी प्रयोजनसे यह कार्य नही किया है, आपके संघाडेके प्रतिवधका तोड़नेके लिये यह कार्य नही किया है, तो भी यह एक प्रकारसे मेरी भूल है, तब उसे अल्प साधारण प्रायश्चित्त देकर क्षमा करना योग्य है। पर्युपणादि पर्वमे साधू श्रावकसे श्रावकके नामसे पत्र लिखवात हा उसके सिवाय किसी दूसरे प्रकारसे अब प्रवृत्ति न की जाये और ज्ञानचर्चा लिखी जाये तो भी बाधा नहा है," इत्यादि भाव लिखे हैं। आप भी उस तथा इस पत्रको विचारकर जैसे क्लेश उत्पन्न न हो वसा कीजियेगा। किसी भी प्रकारसे सहन करना अच्छा है। ऐसा न हो तो साधारण कारणमे महान विपरीत क्लेशरूप परिणाम आता है। यथासम्भव प्रायश्चित्तका कारण न हो तो न करना, नही तो फिर अल्प भा प्रायश्चित्त लेनेमे बाधा नही है। वे यदि प्रायश्चित्त दिये बिना कदाचित इस बातको जाने दें, तो भी आप अर्थात् साधु लल्लुजीको चित्तमे इस बातका इतना पश्चात्ताप करना तो योग्य है कि ऐसा करना भा योग्य न था। भविष्यमे देवकरणजी साधु जैसेकी समक्षतामे वहाँसे कोई श्रावक लिखनेवाला हो और पत्र लिखवाये तो बाधा नही है, इतनी व्यवस्था उस सम्प्रदायमे चली आती है, इससे प्राय लोग विरोध नहीं करेंगे। और उसमे भी यदि विरोध जैसा लगता हो तो अभी उस बातके लिये भी धैर्य रखना हितकारी है । लाकसमुदायमे क्लेश उत्पन्न न हो, इस लक्ष्यको चूकना अभी योग्य नहीं है, क्योकि वैसा कोई बलवान प्रयोजन नहीं है।
श्री कृष्णदासका पन पढ़कर सात्त्विक हर्प हुआ है। जिज्ञासाका बल जैसे बढे वैसे प्रयत्न करना, यह प्रथम भूमिका है। वैराग्य और उपशमके हेतुभूत 'योगवासिष्ठादि' ग्रन्थोके पठनमे बाधा नही है । अनाथदासजी रचित 'विचारमाला' ग्रन्थ सटीक अवलोकन करने योग्य है। हमारा चित्त नित्य सत्सगकी इच्छा करता है, तथापि प्रारब्धयोग स्थिति है। आपके समागमी भाइयो द्वारा यथासम्भव सद्ग्रन्थोका अवलोकन हो, उसे अप्रमादपूर्वक करना योग्य है । और एक दूसरेका नियमित परिचय किया जाये इतना ध्यान रखना योग्य है।
प्रमाद सब कर्मोंका हेतु है।