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________________ २८ वाँ वर्ष ४७५ ६०५ बंबई, जेठ वदी २, १९५१ सविस्तर पत्र लिखनेका विचार था, तदनुसार प्रवृत्ति नहीं हो सकी। अभी उस तरफ कितनी स्थिरता होना सम्भव है ? चौमासा कहाँ होना सम्भव है ? उसे सूचित कर सकें तो सूचित कीजियेगा। पत्रमे तीन प्रश्न लिखे थे, उनका उत्तर समागममे दिया जा सकने योग्य है। कदाचित् थोड़े समयके बाद समागमयोग होगा। , विचारवानको देह छूटने सम्बन्धी हर्षविषाद योग्य नही है। आत्मपरिणामकी विभावता ही हानि और वही मुख्य मरण है। स्वभावसन्मुखता तथा उसकी दृढ इच्छा भी उस हर्पविषादको दूर करती है। ६०६ बंबई, जेठ वदी ५, बुध, १९५१ सर्वमे समभावको इच्छा रहती है। 'ए श्रीपाळनो रास करता, जान अमृत रस वूठयो रे, मुज० ___-श्री यशोविजयजी। परम स्नेही श्री सोभाग, श्री सायला । जो उदयके प्रसग तीव्र वैराग्यवानको शिथिल करनेमे बहुत बार फलोभूत होते है, वैसे उदयके प्रसग देखकर चित्तमे अत्यन्त उदासीनता आती है। यह संसार किस कारणसे परिचय करने योग्य है ? तथा उसकी निवृत्ति चाहनेवाले विचारवानको प्रारब्धवशात् उसका प्रसंग रहा करता हो तो उस प्रारब्धका किसी दूसरे प्रकारसे शीघ्रतासे वेदन किया जा सकता है या नही ? उसे आप तथा श्री डुगर विचारकर लिखियेगा। जिन तीर्थंकरने ज्ञानका फल विरति कहा है उन तीर्थंकरको अत्यन्त भक्तिसे नमस्कार हो । इच्छा न करते हुए भी जीवको भोगना पड़ता है, यह पूर्वकर्मके सम्बन्धको यथार्थ सिद्ध करता है । यही विनती। आ० स्व० दोनोको प्रणाम । बबई, जेठ वदी ७, १९५१ श्री मुनि, "जंगमनी जुक्ति तो सर्वे जाणीए, समीप रहे पण शरीरनो नहीं संग जो;' 'एकाते वसवु रे एक ज आसने, भूल पडे तो पडे भजनमा भंग जो; -ओधवजी अबळा ते साधन शुं करे ? ६०७ ६०८ वबई, जेठ वदी १०, सोम, १९५१ तथारूप गभीर वाक्य नहीं है, तो भी आशय गभीर होनेसे एक लौकिक वचनका आत्मामे अभी बहुत बार स्मरण हो आता है, वह वाक्य इस प्रकार है-"राडी रुए, माडी रुए, पण सात भरतारवाळी १ भावार्थ-इस श्रीपालके रासको लिखते हुए ज्ञानामृत रस बरसा है। २ भावार्थ-जगम अर्थात् आत्माकी सभी युक्तियां हम जानती है। शरीरमे रहते हुए भी उसका सग नही है, उससे भिन्न है । मुमुक्षु किंवा साधक एकातमें असग होकर एक ही आसनपर स्थिर होकर रहे । यदि उस समय अन्य विचार-सकल्प-विकल्प उठ खडे हो तो भक्तिसाधनमें भग पड जाये। ओघवजी । अवला वह साधन कैसे करे? ३ रोड रोए, सुहागन रोए, परन्तु सात भरिवाली तो मुंह ही न खोले।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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