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________________ ३० वा वर्षे ६०७ ७६८ ववाणिया, चैत्र सुदी ४, सोम, १९५३ शुभेच्छायुक्त श्री केशवलालके प्रति, श्री भावनगर । पत्र प्राप्त हुआ है । आशकाका समाधान इस प्रकार है :एकेंद्रिय जीवको अव्यक्तरूपसे अनुकूल स्पर्श आदिकी प्रियता है, वह 'मैथुनसंज्ञा' है। एकेंद्रिय जीवको देह और देहके निर्वाह आदिके साधनोमे अव्यक्त मूर्छारूप 'परिग्रहसज्ञा' है। वनस्पति एकेंद्रिय जीवमे यह सज्ञा कुछ विशेष व्यक्त है। मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन-पर्यायज्ञान, केवलज्ञान, नतिअज्ञान, श्रुतअज्ञान और विभगज्ञान-ये आठो जीवके उपयोगरूप होनेसे अरूपी कहे है । ज्ञान और अज्ञान इन दोनोमे मुख्य अतर इतना हो है कि जो ज्ञान समकितसहित है उसे 'ज्ञान' कहा है और जो ज्ञान मिथ्यात्वसहित है उसे 'अज्ञान' कहा है। परन्तु वस्तुत दोनो ज्ञान हैं। 'ज्ञानावरणीयकर्म' और 'अज्ञान' दोनो एक नही हैं। 'ज्ञानावरणीयकर्म' ज्ञानको आवरणरूप है, और 'अज्ञान' ज्ञानावरणीयकर्मके क्षयोपशमरूप अर्थात् आवरण दूर होनेरूप है। साधारण भाषामे 'अज्ञान' शब्दका अर्थ 'ज्ञानरहित' होता है, जैसे कि जड ज्ञानसे रहित है। परतु निग्रंथ-परिभाषामे तो मिथ्यात्वसहित ज्ञानका नाम अज्ञान है, इसलिये उस दृष्टिसे अज्ञानको अरूपी कहा है। ___ यह आशका हो सकती है कि यदि अज्ञान अरूपी हो तो सिद्धमे भी होना चाहिये । इसका समाधान यह है -मिथ्यात्वसहित ज्ञानको ही 'अजान' कहा है, उसमेसे मिथ्यात्व निकल जानेसे शेप ज्ञान रहता है, वह ज्ञान सपूर्ण शुद्धतासहित सिद्ध भगवानमे रहता है। सिद्ध, केवलज्ञानी और सम्यग्दृष्टिका ज्ञान मिथ्यात्वरहित है। मिथ्यात्व जीवको भ्रातिरूप है। वह भ्राति यथार्थ समझमे आ जानेपर निवृत्त हो सकने योग्य है । मिथ्यात्व दिशाभ्रमरूप है। श्री कुवरजीकी अभिलाषा विशेष थी, परन्तु किसी एक हेतुविशेषके बिना पत्र लिखना अभी वन नही पाता । यह पत्र उन्हे पढवानेकी विनती है । ७६९ ववाणिया, चैत्र सुदी ४, १९५३ तीनो प्रकारके समकितमेसे चाहे जिस प्रकारका समकित प्रगट हो तो भी अधिकसे अधिक पद्रह भवोमे मोक्ष होता है, और यदि उस समकितके होनेके बाद जीव उसका वमन कर दे तो अधिकसे अधिक अर्ध पुद्गलपरावर्तनकाल तक ससार परिभ्रमण होकर मोक्ष होता है। तीर्थकरके निग्रंथ, निग्रंथिनियो, श्रावक और श्राविकाओ सभीको जीव-अजीवका ज्ञान या इसलिये उन्हे समकित कहा है, यह बात नही है। उनमेसे अनेक जीवोको मात्र सच्चे अतरग भावसे तीर्थकरकी और उनके उपदिष्ट मार्गकी प्रतीतिसे भी समकित कहा है। इस समकितको प्राप्तिके वाद यदि उसका वमन न किया हो तो अधिकसे अधिक पद्रह भव होते हैं | सच्चे मोक्षमार्गको प्राप्त ऐसे सत्पुरुपको तथारूप प्रतीतिसे सिद्धातमे अनेक स्थलोमे समकित कहा है । इस समकितके आये बिना जीवको प्राय जीव और अजीवका यथार्थ ज्ञान भी नही होता । जीव-अजीवका ज्ञान प्राप्त करनेका मुख्य मार्ग यही है। ७७० ववाणिया, चैत्र सुदी ४, १९५३ जान जीवका रूप है, इसलिये वह अरूपी है, और जब तक ज्ञान विपरोतरूपसे जाननेका कार्य करता है, तब तक उसे अज्ञान कहना ऐसो निग्रंथ-परिभाषा है, परन्तु यहां ज्ञानका दूसरा नाम हो अज्ञान है यो समझना चाहिये।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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