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________________ ६०६ श्रीमद राजचन्द्र ७६७ ववाणिया, चैत्र सुदी ३, रवि, १९५३ परमभक्तिसे स्तुति करनेवालेके प्रति भी जिसे राग नही है और परमद्वेपसे उपसर्गं करनेवालेके प्रति भी जिसे द्वेष नही है, उस पुरुषरूप भगवानको वारवार नमस्कार । अपवृत्तिसे वर्तन करना योग्य है, धीरज कर्तव्य है । मुनि देवकीजीको 'आचाराग' पढते हुए दीर्घशका आदि कारणोके विषय मे भी साधुका मार्ग अत्यत संकुचित देखनेमे आया, जिससे यह आशका हुई कि ऐसी साधारण क्रियामे भी इतनी अधिक संकुचितता रखने का क्या कारण होगा ? उस आशकाका समाधान : I सतत अंतर्मुख उपयोगमे स्थिति रखना ही निर्ग्रथका परम धर्म है । एक समय के लिये भी वहिर्मुख उपयोग न करना यह निर्ग्रथका मुख्य मार्ग है, परन्तु उस सयमके लिये देह आदि साधन है, उनके निर्वाहके लिये सहज भो प्रवृत्ति होना योग्य है । कुछ भी वैसी प्रवृत्ति करते हुए उपयोग बहिर्मुख होनेका निमित्त हो जाता है, इसलिये उस प्रवृत्तिको इस ढगसे करनेका विधान है कि उपयोगकी अतर्मुखता बनी रहे । केवल और सहज अंतर्मुख उपयोग तो मुख्यतया केवलभूमिका नामके तेरहवें गुणस्थानक होता है । और निर्मल विचारधाराकी प्रबलतासहित अन्तर्मुख उपयोग सातवें गुणस्थानकमे होता है । प्रमादसे वह उपयोग स्खलित होता है, और कुछ विशेष अशमे स्खलित हो जाये तो विशेष वहिर्मुख उपयोग हो जाता है, जिससे भाव-असयमरूपसे उपयोगको प्रवृत्ति होती है । वैसा न होने देनेके लिये और देह आदि साधनोंके निर्वाहको प्रवृत्ति भी छोडी न जा सके ऐसी होनेसे, वह प्रवृत्ति अतर्मुख उपयोगसे हो सके, ऐसी अद्भुत सकलनासे उसका उपदेश किया है, जिसे पाँच समिति कहा जाता है । चलना पडे तो आज्ञानुसार उपयोगपूर्वक चलना, बोलना पडे तो आज्ञानुसार उपयोगपूर्वक बोलना; आज्ञानुसार उपयोगपूर्वक आहार आदिका ग्रहण करना, आज्ञानुसार उपयोगपूर्वक वस्त्र आदिका लेना और रखना, और आज्ञानुसार उपयोगपूर्वक दीर्घशका आदि शरीर-मलका त्याग करने योग्य त्याग करना, इस प्रकार प्रवृत्ति रूप पाँच समिति कही है । सयममे प्रवृत्ति करनेके लिये जिन जिन दूसरे प्रकारोका उपदेश किया है, उन सबका इन पाँच समितियोमे समावेश हो जाता है, अर्थात् जो कुछ निर्ग्रथको प्रवृत्ति करनेकी आज्ञा दी है, उनमे से जिस प्रवृत्तिका त्याग करना अशक्य है, उसी प्रवृत्तिकी आज्ञा दी है, और वह इस प्रकारसे दो है कि मुख्य हेतुभूतं अतर्मुख उपयोग अस्खलित बना रहे । तदनुसार प्रवृत्ति की जाये तो उपयोग सतत जाग्रत बना रहे, और जिस जिस समय जीवकी जितनी जितनी ज्ञानशक्ति तथा वीर्यशक्ति है वह सब अप्रमत्त बनी रहे । दीर्घशका आदि क्रियाओको करते हुए भी अप्रमत्त संयमदृष्टिका विस्मरण न हो जाये इस हेतुसे वेसी वैसी कठोर क्रियाओका उपदेश दिया है, परन्तु सत्पुरुपकी दृष्टिके विना वे समझमे नही आती । यह रहस्यदृष्टि सक्षेप मे लिखी है, इस पर अधिकाधिक विचार कर्तव्य है । सभी क्रियाओमे प्रवृत्ति करते हुए इस दृष्टिको स्मरणमे रखनेका ध्यान रखना योग्य है । श्री देवकीर्णजी आदि सभी मुनियो को इस पत्र की वारवार अनुप्रेक्षा करना योग्य है । श्री लल्लुजी आदि मुनियोको नमस्कार प्राप्त हो । कर्मग्रंथको वाचना पूरी होनेपर पुन आवर्तन करके अनुप्रेक्षा कर्तव्य है ।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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