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श्रीमद् राजचन्द्र . एक तुवे जैसी और डोरे जैसी अत्यत अल्प वस्तुके ग्रहण-त्यागके, आग्रहसे भिन्न मार्ग खड़ा करके प्रवृत्ति करते हैं, और तीर्थका भेद करते है. ऐसे महामोहमूढ जीव, लिंगाभासतासे.- भी आज वीतरागके दर्शनको घेर बैठे हैं, यही असंयतिपूजा नामका आश्चर्य लगता है।, : -- , , ... महात्मा पुरुषोकी अल्प भी प्रवृत्ति स्व-परको मोक्षमार्गसन्मुख करनेकी होती है। लिगाभासी जीव मोक्षमार्गसे पराड्मुख करनेमे अपने बलका प्रवर्तन देखकर हर्षित होते है, और यह सब कर्मप्रकृतिमे बढते हुए अनुभाग और स्थिति-वधके स्थानक है, ऐसा मैं मानता हूँ!' .. . ' - [अपूर्ण]
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. . . द्रव्य अर्थात् वस्तु, तत्त्व, पदार्थ । इसमे मुख्य तीन अधिकार हैं.। प्रथम अधिकारमे 'जीव और अजीव द्रव्यके मुख्य प्रकार कहे है।
दूसरे अधिकारमे जीव और अजीवका पारस्परिक संबंध और उससे जीवका हिताहित क्या है, उसे समझानेके लिये उसके विशेष पर्यायरूपसे पाप पुण्य आदि दूसरे सात तत्त्वोंका निरूपण किया है, जो सात तत्त्व जीव और अजीव इन दो तत्त्वोमे समा जाते है।
। । - - तीसरे अधिकारमे यथास्थित मोक्षमार्ग प्रदर्शित किया है, कि जिसके लिये ही समस्त ज्ञानीपुरुपोका उपदेश है ।। ।। " .. . ..
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., 7 : पदार्थके, विवेचन और सिद्धातपर जिनकी नीव रखी गयी है, और उसके द्वारा जो मोक्षमार्गका प्रतिवोध करते हैं ऐसे छ दर्शन है-(५) बौद्ध, (२) न्याय, (३) साख्य, (४) जैन, (५) मीमासा और (६) वैशेपिक । वैशेषिकको यदि न्यायमे अंतर्भूत किया जाये तो, नास्तिक विचारका प्रतिपादक चार्वाक दर्शन छट्ठा माना जाता है। 5 । -
। - - 15T IFit) न्याय, वैशेषिक, साख्य, योग, उत्तरमीमासा और पूर्वमीमासा ये छ दर्शन वेद परिभाषामें माने गये है, उसकी अपेक्षा उपर्युक्त दर्शन भिन्न पद्धतिसे माने है इसका क्या कारण है.? ऐसा प्रश्न हो तो उसका समाधान यह है -,, -
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2017 । वेद परिभापासे बताये हुए दर्शन वेदको मानते हैं। इसलिये उन्हे इस दृष्टिसे-माना है, और उपर्युक्त क्रममें तो विचारकी परिपाटीके भेदसे माने है। जिससे यही क्रम योग्य हैं ..." । द्रव्य और गुणका अनन्यत्व-अविभक्तत्व अर्थात् प्रदेशभेद रहितत्व है, क्षेत्रांतर' नहीं है। द्रव्यके नाशसे गुणका नाश और गुणके नाशसे द्रव्यका नाश होता है ऐसा, ऐक्यभाव है। द्रव्य और गुणका भेद कहते हैं, सो कथनसे है, वस्तुसे नही है । सस्थान, सख्याविशेष आदिसे ज्ञान और ज्ञानीमे सर्वथा भेद हो तादाना: अचेतन हो जायें ऐसा सर्वज्ञ. वीतरागका सिद्धात है। ज्ञानक साथ समवाय सवधसे आत्मा ज्ञानी नहीं है। समवृतित्व ससवाय है।
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: 15:07 | ) : .. 5, वर्ण, गंध, रस और स्पर्श परमाणु-द्रव्यके विशेष हे। , . . . . . . . . [अपूर्ण]
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.सवत् १९५३ यह अत्यंत सुप्रसिद्ध हे कि प्राणीमात्रको दु ख प्रतिकूल ओर अप्रिय हे और सुख अनुकूल तथा प्रिय है । उस दु खसे रहित होनेके लिये और सुखकी प्राप्तिके लिये प्राणीमात्रका प्रयत्न है। , ! ,
"प्राणीमात्रका ऐसा प्रयत्न होनेपर भी वे दुखका अनुभव करते हुए ही दृष्टिगोचर-होते, हे। क्वचित् कुछ सुखका अश किमी प्राणीको प्राप्त हुआ दीखता है, तो भी वह दुखकी बहुलतासे देखनेमे आता है।
१. देखें आक १६६ ‘पचास्तिकाय ४६, ४८, ४९ आर ५० । । । ।