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________________ ५५८ श्रीमद राजचन्द्र आशका भी करने योग्य नही है, क्योकि मुख्यत तो उत्कृष्ट शुभ अध्यवसाय वही उत्कृष्ट देवलोक है, और उत्कृष्ट अशुभ अध्यवसाय वही उत्कृष्ट नरक है, शुभाशुभ अध्यवसाय मनुष्यतिर्यंच आदि गतियाँ हैं, और स्थानविशेष अर्थात् ऊर्ध्वलोकमे देवगति इत्यादि भेद है। जीवसमूहके कर्मद्रव्यके भी वे परिणामविशेष है अर्थात् वे सब गतियाँ जीवके कर्मके विशेष परिणामादिरूप है। ___यह बात अति गहन है । क्योकि अचिंत्य जीव-वीर्य, अचिंत्य पुद्गल-सामर्थ्य, इनके संयोगविशेषसे लोकका परिणमन होता है। उसका विचार करनेके लिये उसे अधिक विस्तारसे कहना चाहिये । परंतु यहाँ तो मुख्यत आत्मा कर्मका भोक्ता है इतना लक्ष्य करानेका आशय होनेसे अत्यत सक्षेपसे यह प्रसग कहा है । (८६) शका-शिष्य उवाच [जीवका उस कर्मसे मोक्ष नही है ऐसा शिष्य कहता है -] कर्ता भोक्ता जीव हो, पण तेनो नहि मोक्ष। वोत्यो काळ अनंत पण, वर्तमान छे दोष ॥८७॥ जीव कर्ता और भोक्ता हो, परतु इससे उसका मोक्ष होना सभव नही है, क्योकि अनत काल बीत जानेपर भी कर्म करनेरूप दोष आज भी उसमे वर्तमान ही है ।।८७॥ शुभ करे फळ भोगवे, देवादि गति माय। अशुभ करे नरकादि फळ, कर्म रहित न क्यांय ॥८॥ शुभ कर्म करे तो उससे देवादि गतिमे उसका शुभ फल भोगता है और अशुभ कर्म करे तो नरकादि गतिमे उसका अशुभ फल भोगता है, परतु जीव कर्मरहित कही भी नही हो सकता ॥८८॥ . समाधान-सद्गुरु उवाच [उस कर्मसे जीवका मोक्षा हो सकता है ऐसा सद्गुरु समाधान करते है --] जेम शुभाशुभ कर्मपद, जाण्यां सफळ प्रमाण।। तेम निवृत्ति सफलता, माटे मोक्ष सुजाण ॥८९॥ जिस तरह तूने शुभाशुभ कर्म उस जीवके करनेसे होते हुए जाने, और उससे उसका भोक्तृत्व जाना, उसी तरह कर्म नही करनेसे अथवा उस कर्मकी निवृत्ति करनेसे वह निवृत्ति भी होना योग्य है, इसलिये उस निवृत्तिकी भी सफलता है, अर्थात् जिस तरह वे शुभाशुभ कर्म निष्फल नही जाते उसी तरह उनकी निवृत्ति भी निष्फल जाना योग्य नही है, इसलिये वह निवृत्तिरूप मोक्ष है ऐसा हे विचक्षण | तू विचार कर ||८|| वोत्यो काळ अनंत ते, कर्म शुभाशुभ भाव । तेह शुभाशुभ छेदतां, ऊपजे मोक्ष स्वभाव ॥१०॥ कर्मसहित अनतकाल बीता, वह तो उस शुभाशुभ कर्मके प्रति जीवकी आसक्तिके कारण बीता, परतु उसके प्रति उदासीन होनेसे उस कर्मफलका छेदन होता है, और उससे मोक्षस्वभाव प्रगट होता है ॥१०॥ देहादिक संयोगनो, - आत्यतिक वियोग। सिद्ध मोक्ष शाश्वत पदे, निज अनंत सुखभोग ॥११॥ देहादि सयोगका अनुक्रमसे वियोग तो हुआ करता है, परतु उनका फिरसे ग्रहण न हो इस तरह वियोग किया जाय, तो सिद्धस्वरूप मोक्षस्वभाव प्रगट होता है, और शाश्वतपदमे अनत आत्मानद भोगा जाता है ॥२१॥
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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