SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 574
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २८ वो वर्ष स्थापित होना पहिले तो कठिन पड़ता है, परन्तु वचनको अपूर्वतासे, उस वचनका विचार करनेसे तथा ज्ञानीको अपूर्व दृष्टिसे देखनेसे मनका स्थापित होना सुलभ होता है। ___ ज्ञानीपुरुषके आश्रयमे विरोध करनेवाले. पच विषयादि दोष है। उन दोषोंके होनेके साधनोंसे यथाशक्ति दूर रहना, और प्राप्तसाधनमे भी उदासीनता रखना, अथवा उन उन साधनोमेसे अहबुद्धिको दूरकर, उन्हे रोगरूप समझकर प्रवृत्ति करना योग्य है । अनादि दोषका ऐसे प्रसगमे विशेष उदय होता है । क्योकि आत्मा उस दोषको नष्ट - करनेक लिये अपने सन्मुख लाता है कि वह स्वरूपान्तर करके उसे आकर्षित करता है, और जागतिमे शिथिल करके अपनेमे एकाग्र बुद्धि करा देता है। वह एकाग्र बुद्धि इस प्रकारकी होती है कि, 'मुझे इस प्रवृत्तिसे वैसी विशेष बाधा नही होगी, मै अनुक्रमसे उसे छोडूंगा, और करते हुए जागृत रहूँगा'; इत्यादि भ्रातदशा उन दोषोंसे होती है, जिससे जीव उन दोषोका सम्बन्ध नहीं छोड़ता, अथवा वे दोष बढते हैं, उसका ध्यान उसे नही आ सकता। ___ इस विरोधी साधनका दो प्रकारसे त्याग हो सकता है-एक, उस साधनके प्रसगकी निवृत्ति, दूसरा, विचारपूर्वक उसको तुच्छता समझना। विचारपूर्वक तुच्छता समझनेके लिये प्रथम उस पचविषयादिके साधनकी निवृत्ति करना अधिक योग्य है, क्योकि उससे विचारका अवकाश प्राप्त होता है। - , उस पचविषयादिके साधनकी सर्वथा निवृत्ति करनेके लिये जीवका बल न चलता हो, तब क्रमक्रमसे, अश-अशसे उसका त्याग करना योग्य है, परिग्रह तथा भोगोपभोगके पदार्थोका अल्प परिचय करना योग्य है । ऐसा करनेसे अनुक्रमसे वह दोष मद पड़ता है और आश्रयभक्ति दृढ होती है तथा ज्ञानीके वचन आत्मामे परिणमित होकर, तीव्रज्ञानदशा प्रगट होकर जीवन्मुक्त हो जाता है। जीव क्वचित् ऐसी बातका विचार करे, इससे अनादि अभ्यासका बल घटना कठिन है परन्तु दिनप्रतिदिन, प्रसग-प्रसंगमे और प्रवृत्ति प्रवृत्तिमे पुन पुनः विचार करे, तो अनादि अभ्यासका बल घटकर अपूर्व अभ्यासकी सिद्धि होकर सुलभ ऐसा आश्रयभक्तिमार्ग सिद्ध होता है। यही विनती।। आ० स्व० प्रणाम। बबई, फागुन वदी ११, शुक्र, १९५१ जन्म, जरा, मरण आदि दु खोसे समस्त ससार अशरण है। जिसने सर्वथा उस ससारकी आस्था छोड़ दी है, वही आत्मस्वभावको प्राप्त हुआ है, और निर्भय हुआ है। विचारके बिना वह स्थिति जीवको प्राप्त नही हो सकती, और सगके मोहसे पराधीन इस जीवको विचार प्राप्त होना दुर्लभ है। आ० स्व० प्रणाम। ५७४ ववई, फागुन, १९५१ यथासम्भव तुष्णा कम करनी चाहिये। जन्म, जरा, मरण किसके हैं ? कि जो तुष्णा रखता है, उसके जन्म, जरा, मरण हैं । इसलिये तृष्णाको यथाशक्ति कम करते जाना। ५७३ ५७५ बबई, फागुन, १९५१ जब तक यथार्थ निज स्वरूप सम्पूर्ण प्रकाशित हो तब तक निज स्वरूपके निदिध्यासनमै स्थिर रहनेके लिये ज्ञानीपुरुषके वचन आधारभूत हैं, ऐसा परम पुरुष श्री तीर्थंकरने कहा है, वह सत्य है। वारहवें गुणस्थानमे रहनेवाले आत्माको निदिध्यासनरूप ध्यानमे श्रुतज्ञान अर्थात् ज्ञानीके मुख्य वचनोका
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy