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________________ ४६२ श्रीमद् राजचन्द्र आशय वहाँ आधारभूत है, ऐसा प्रमाण जिनमार्गमे वारवार कहा है । बोधबीजकी प्राप्ति होनेपर, निर्वाणमार्गी यथार्थ प्रतीति होनेपर भी उस मार्ग मे यथास्थित स्थिति होनेके लिये ज्ञानीपुरुषका आश्रय मुख्य साधन है, और वह ठेठ पूर्ण दशा होने तक है, नही तो जीवको पतित होनेका भय है, ऐसा माना है । तो फिर अपने आप अनादिसे भ्रात जीवको सद्गुरुके योगके बिना निजस्वरूपका भान होना अशक्य है, इसमे सशय क्यो हो ? जिसे निज स्वरूपका दृढ निश्चय रहता है, ऐसे पुरुषको प्रत्यक्ष जगतव्यवहार वारवार मार्गच्युत करा देने वाले प्रसग प्राप्त कराता है, तो फिर उससे न्यूनदशामे जीव मार्ग भूल जाय, इसमे आश्चर्य क्या है ? अपने विचारके बलसे, सत्सग-सत्शास्त्र के आधार से रहित प्रसगमे यह जगतव्यवहार विशेष बल करता है, और तब वारवार श्री सद्गुरुका माहात्म्य और आश्रयका स्वरूप तथा सार्थकता अत्यन्त अपरोक्ष सत्य दिखायी देते है । ५७६ बबई, चैत्र सुदी ६, सोम, १९५१ आज एक पत्र आया है । यहाँ कुशलता है । पत्र लिखते लिखते अथवा कुछ कहते कहते वारवार चित्ती अप्रवृत्ति होती है, और कल्पितका इतना अधिक माहात्म्य क्या ? कहना क्या ? जानना क्या सुनना क्या ? प्रवृत्ति क्या ? इत्यादि विक्षेपसे चित्तकी उसमे अप्रवृत्ति होती है, और परमार्थसम्बन्धी कहते हुए, लिखते हुए उससे दूसरे प्रकार के विक्षेपकी उत्पत्ति होती है, जिस विक्षेपमे मुख्य इस तीव्र प्रवृत्तिके निरोधके बिना उसमे परमार्थकथनमे भी अप्रवृत्ति अभी श्रेयभूत लगती है । इस कारण विषयमे पहिले एक सविस्तर पत्र लिखा है, इसलिये यहाँ विशेष लिखने जैसा नही है विशेष स्फूर्ति होनेसे यहाँ लिखा है । । केवल चित्तमे व्यापार आदी प्रवृत्ति अधिक न करनेका हो सके तो ठीक है, ऐसा, जो लिखा वह यथायोग्य है, और चित्तको इच्छा नित्य ऐसी रहा करती है । लोभहेतुसे वह प्रवृत्ति होती है या नही ? ऐसा विचार करते हुए लोभका निदान प्रतीत नही होता । विषयादिकी इच्छासे प्रवृत्ति होती है, ऐसा भी प्रतीत नही होता, तथापि प्रवृत्ति होती है, इसमे सन्देह नही । जगत कुछ लेने के लिये प्रवृत्ति करता है, यह प्रवृत्ति देने के लिये होती होगी ऐसा लगता है । यहाँ जो यह लगता है वह यथार्थ होगा या नही ? उसके लिये विचारवान पुरुष जो कहे वह प्रमाण है । यही विनती । लि० रायचदके प्रणाम । ५७७ बबई, चैत्र सुदी १३, १९५१ अभी यदि किन्ही वेदातसम्बन्धी ग्रन्थोका अध्ययन तथा श्रवण करनेका रहता हो तो उस विचारका विशेष विचार होनेके लिये कुछ समय श्री 'आचाराग', 'सूयगडाग' तथा 'उत्तराध्ययन' को पढ़ने एव विचार करनेका हो सके तो कीजियेगा । वेदात के सिद्धातमे तथा जिनागमके सिद्धातमे भिन्नता है, तो भी जिनागमको विशेष विचारका स्थान मानकर वेदातका पृथक्करण होनेके लिये वे आगम पढने विचारने योग्य है । यही विनती । ५७८ बबई, चैत्र सुदी १४, शनि, १९५१ बम्बईमे आर्थिक तगी विशेष है । सट्टेवालोको बहुत नुकसान हुआ है । आप सबको सूचना है कि सट्टे जैसे रास्तेको न अपनाया जाये, इसका पूरा ध्यान रखियेगा । माताजी तथा पिताजीको पादप्रणाम । रायचदके यथायोग्य ।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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