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________________ २९ वाँ वर्ष ४९९ सर्व दु खसे मुक्त होनेका सर्वोत्कृष्ट उपाय आत्मज्ञानको कहा है, यह ज्ञानीपुरुषोका वचन सत्य है, अत्यन्त सत्य है। जब तक जीवको तथारूप आत्मज्ञान न हो तब तक बन्धनकी आत्यन्तिक निवृत्ति नही होती, इसमे सशय नही है। उस आत्मज्ञानके होने तक जीवको मूर्तिमान आत्मज्ञानस्वरूप सद्गुरुदेवका निरतर आश्रय अवश्य करना योग्य है, इसमे सशय नहीं है । उस आश्रयका वियोग हो तब आश्रयभावना नित्य कर्तव्य है। उदयके योगसे तथारूप आत्मज्ञान होनेसे पूर्व उपदेशकार्य करना पड़ता हो तो विचारवान मुमुक्षु परमार्थमार्गके अनुसरण करनेके हेतुभूत ऐसे सत्पुरुषकी भक्ति, सत्पुरुषका गुणगान, सत्पुरुषके प्रति प्रमोदभावना और सत्पुरुषके प्रति अविरोधभावनाका लोगोको उपदेश देता है, जिस तरह मतमतातरका अभिनिवेश दूर हो, और सत्पुरुषके वचन ग्रहण करनेकी आत्मवृत्ति हो, वैसा करता है। वर्तमानकालमे उस प्रकारकी विशेष हानि होगी, ऐसा जानकर ज्ञानीपुरुषोने इस कालको दुषमकाल कहा है, और वैसा प्रत्यक्ष दिखायी देता है। - सर्व कार्यमे कर्तव्य मात्र आत्मार्थ है, यह सम्यग्भावना मुमुक्षुजीवको नित्य करना योग्य है। ६७१ बबई, फागुन सुदी ३, रवि, १९५२ आपका एक पत्र आज मिला है। उस पत्रमे श्री डुगरने जो प्रश्न लिखवाये हैं उनके विशेष समाधानके लिये प्रत्यक्ष समागमपर ध्यान रखना योग्य है।। प्रश्नोसे बहुत सतोप हुआ है। जिस प्रारब्धके उदयसे यहाँ स्थिति है, उस प्रारब्धका जिस प्रकारसे विशेषत वेदन किया जाय उस प्रकारसे रहा जाता है। और इससे विस्तारपूर्वक पत्रादि लिखना प्राय नही होता। श्री सुदरदासजीके ग्रन्थोका अथसे इति तक अनुक्रमसे विचार हो सके, वैसा अभी कीजियेगा, तो कितने ही विचारोका स्पष्टीकरण होगा। प्रत्यक्ष समागममे उत्तर समझमे आने योग्य होनेसे पत्र द्वारा मात्र पहुँच लिखी है । यही। भक्तिभावसे नमस्कार। ६७२ बबई, फागुन सुदी १०, १९५२ ॐ सद्गुरुप्रसाद आत्मार्थी श्री सोभाग तथा श्री डुगरके प्रति, श्री सायला । विस्तारपूर्वक पत्र लिखना अभी नही होता, इससे चित्तमे वैराग्य, उपशम आदि विशेष प्रदीप्त रहनेमे सत्शास्त्रको एक विशेष आधारभूत निमित्त जानकर, श्री सुदरदास आदिके ग्रन्थोका हो सके तो दो से चार घड़ी तक नियमित वाचना-पृच्छता हो, वैसा करनेके लिये लिखा था। श्री सुन्दरदासके ग्रन्थोका आदिसे लेकर अत तक अभी विशेष अनुप्रेक्षापूर्वक विचार करनेके लिये आपसे और श्री डुगरसे विनती है। काया तक माया (अर्थात् कषायादि) का सम्भव रहा करता है, ऐसा श्री डुगरको लगता है, यह अभिनाय प्राय तो यथार्थ है, तो भी किसी पुरुषविशेषमें सर्वथा सब प्रकारके संज्वलन आदि कपायका अभाव हो सकना सम्भव लगता है, और हो सकनेमे सन्देह नहीं होता, इसलिये कायाके होनेपर भी कषायका अभाव सम्भव है, अर्थात् सर्वथा रागद्वेषरहित पुरुष हो सकता है। रागद्वेपरहित यह पुरुष है, ऐसा वाद्य चेष्टासे सामान्य जीव जान सकें, यह सम्भव नही । इससे वह पुरुष कपायरहित, सम्पूर्ण वीत. राग न हो, ऐसा अभिप्राय विचारवान स्थापित नही करते, क्योकि वाह्य चेष्टासे आत्मदशाको स्थिति सर्वथा समझमे आ सके, ऐसा नहीं कहा जा सकता।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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