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जातिके मार्गप्राप्तपुरुष अतिम ज्ञानको अप्राप्त, ज्ञानीकी अपेक्षा मुमुक्षुपर उल्लाम, मुक्ति भी नही चाहिये, जैनका केवलज्ञान भी नही चाहिये, यह भूमि उपाधिकी शोभाका सग्ग्रहालय
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१८८ कहनेरूप मैं
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१८९ अलखनामकी वुन लगी है
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१९० पूर्वापर असमाधि न करनेकी शिक्षा २६१ १९१ हरिजनकी भक्ति प्रिय, परमार्थकी परम
आकाक्षा की पूर्ति ईश्वराधीन १९२ आत्मसाधनरूप वृत्ति, कबीरका पद ' करना फकीरी क्या दिलगीरी' निष्कारण परमार्थवृत्ति
१९३ मुमुक्षुओका दासत्व प्रिय, आश्रम छोडना
अनावश्यक
१९७ परिपूर्ण दर्शन असगतामें, एकान्तवाससे परदा दूर होगा
१९८ सजीवन-मूर्ति सत्प्राप्ति, जीवने क्या नहीं किया ? क्या करना है ? इसे विचारों, योग्यता के लिये ब्रह्मचर्य
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१९४ मार्ग सरल परन्तु प्राप्ति-योग दुर्लभ, सत्स्वरूप - प्राप्ति किंवा ज्ञान-प्राप्तिका मार्ग ज्ञानीकी चरणसेवा है, मुनियोकी सामायिक, आणाए धम्मो आगाए तवो, लक्ष न समझनेका प्रधान कारण स्वच्छन्द २६२ १९५ परिभ्रमणनिवत्ति किससे हो ? इसे विचारें २६३ १९६ दो बडे बन्चन - स्वच्छद और प्रतिवन्ध, व्याख्यानको प्रतिवन्वरूप समझें
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१९९ मनुष्यताको सफलताके लिये जियें, मिथ्या वासनाओको निवृत्तिका विचार २०० वचनावली – अपनेको भूलनेसे सत्सुखका वियोग, अनन्तानुवन्धी कषायका मूल, ज्ञानीकी आज्ञाका माराधन कौन कर सके. ज्ञानमागंकी श्रेणिकी प्राप्तिसे मोक्ष २०१ निरजनदेवका अनुग्रह, भागवतकी कथा - 'कोई माघव ले', पराभक्तिका अनुपम उदय, भागवत अद्भुत भक्ति, भक्ति सर्वोपरि मागं २६६ २०२ परमार्थमार्गमं प्रेम हो धर्म
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२०३ विकल्प न कीजियेगा
२०४ परमार्थके लिये परिपूर्ण इच्छा, प्रगट होनेकी अनिच्छा
२०५ तत्र को मोह क शोक एकत्वमनुपश्यत वास्तविक सुख जगतकी दृष्टिमे नही आया, ज्ञानीको भी विचारकर पैर रखने जैसा जगत २६८ २०६ महात्माओका रिवाज
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२०७ सच्चे धर्म और ज्ञान, परमार्थ- प्रीति होनेमें सत्सग अनुपम साधन, विकट पुरुषार्थ, 'सत्' सरल है, सतुको बतानेवाला सत् चाहिये, ज्ञानियोकी वाणी नयमें उदासीन २०८ नयके रास्तेसे पदार्थनिर्णय अशक्य, २०९ परम तत्त्व अनत नामोसे
२१० सब जीवोके, विशेषत धर्मजीवके दास, पुरानेको छोडे बिना छुटकारा नही २११ 'मत्' का स्वरूप और प्राप्ति, परम पद दायक वचन, समस्त द्वादशागी, षड्दर्शनका सर्वोत्तम तत्त्व और वोघवीज, गुप्त रीतिसे कहने का हमारा मत्र २१२ अनन्य भक्तिभाव, सजीवनमूर्तिका योग ओर पहचान, मार्गको निकटता
२१३ पुराण पुरुष और सत्पुरुष, सत्पुरुषकी विशेपता, महत्ता, त्रिकालिक बात और ज्ञानी, भक्ति और असगता प्रिय
२१४ अभेददशा आनेके लिये रचनाके कारणमें प्रीति और अहरूप भ्रातिका त्याग, सत्पुरुषकी शरण अपूर्व औषध, जगतके प्रति हमारा उदासीन भाव, परमात्माकी विभूतिरूप हमारा भक्तिवाम २१५ परमात्माके प्रसन्न होने योग्य भक्तिमान, हम आपके आसरेसे ही जीवित है २१६ सत् ही सब कुछ, सत्
जगतरूपसे अनेक
प्रकारका
२१७ परमात्मामें परम स्नेह और अनन्य भक्ति, घर भी वनवास, जडभरतको दशा, यमकी अपेक्षा मग दुखदायक, 'सत् सत्' की रटन, पागल शिक्षा, हम निर्वल परंतु सम्मति सबल
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