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________________ [ ५६] । १९ वह दशा किस लिये आवृत हुई ? वही । परमात्मा है ८१२ २० 'कोई ब्रह्मरसना भोगी ।। ८१३ २१ परिग्रह मर्यादा - ८१३ २२ चेतन और चैतन्य ८१३ २३ चक्षु और मन अप्राप्यकारी, चेतनका बाह्य अगमन - ८१३ १४ समय-समयमें अनत सयमपरिणाम, योग दशामे आत्माका सकोच-विकास ८१४ २५ ध्यान ८१४ २६ पुरुषाकार चिदानदधनका ध्यान करें, चमत्कारका धाम ८१४ २७ विश्व, जीव, परमाणु और कर्मसवध अनादि ८१५ २८ आत्मभावना करनेका क्रम ८१५ ३० प्राण, वाणी, रसमें ८१५ ३१ जैन सिद्धातके ग्रथकी रचनाका प्रकार ८१५ ३२ धन्य रे दिवस (काव्य) ८१६ ३३ बध और मोक्ष ८१७ ३४ छ पद ३५ आत्माके नित्यत्व आदि सम्बन्धी छ ___दर्शनकी मान्यताका कोष्ठक ८१८ ३६ बुद्धि, आत्मा, विश्व और परमात्माके विषयमें जिन, वेदात आदिके कथन ८१८ ३७ महावीरस्वामीके पुरुपार्थसे बोध, अपनी कल्पनासे वर्तन करनेसे भववृद्धि ८१८ ३८ सर्वसग महास्रव, मिश्रगुणस्थानक जैसी स्थिति, वैश्यवेष और निग्रंथभाव, विभावयोगका विचार, ज्ञानका तारतम्य और उदयबल, हतपुण्य लोगोने भरत क्षेत्रको घेरा है . : ८१८ ३९ व्यवहारका विस्तार रूप दोष ४० चित्तकी शातिके लिये समाधान ४१ जीवनकाल भोगनेका विचार । - ८ ४२ तत्त्वज्ञानी अपनी देहमें भी ममत्त्व नही करते ८२० ४३ काम आदिका सयम ४४ व्यवसायसे निवृत्त हो, प्रारव्यसे सहज निवृत्ति । ८२१ । ४५ सग या अश सग निवृत्तिरूप कालकी ' प्रतिज्ञा, निवृत्ति ही प्रशस्त । ८२१ ५६ प्रत्याख्यान ८२१ ४७ क्षायोपशमिक ज्ञान । ८२१ ४८ 'जेम निर्मलता रे 'जिनवीर-प्रकाशित धर्म " - ८२१ ४९ वीतरागदर्शनके निर्धारित ग्रन्थका विषय ८२२ ५० जैन और वेदात पद्धतिके एकीकरके लिये विचारित विपय ८२२ ५१ जनशासनकी विचारणा ८२२ ५२ जनपद्धतिके विचारणीय मूलोत्तर प्रश्न ८२३ . ५३ न्यायविषयक प्रश्न ८२३ ५४ आत्मदशा और लोकोपकार प्रवृत्तिसवधी ८२३ ५५ आत्म परिणामकी विशेष स्थिरताके लिये वाणी-कायासयम ८२३ ५६ जीव आदि द्रव्यसम्बन्धी - ८२४ ५७ हे योग ८२४ ५८ एक चैतन्यमें यह सब किस तरह घटता ८१७ ८२४ का ५९ विभाव परिणाम क्षीण न करनेसे दुखका वेदन ८२४ ६० चिंतनानुसार आत्माका प्रतिभासन, विचारशक्ति और विपयार्तता, चेतनकी अनुत्पत्ति, नित्यत्व और द्रव्यत्व १८२४ ६१ वीतरागके सम्पूर्ण प्रवीतियोग्य वचन, " ... वीततागताके प्रमाणमें श्रद्धेयत्व, जिनकी शिक्षा अविकल ८२४ ६२ जनदर्शन आदिका मथन ६३ धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, लोक• सस्थान आदिके रहस्यसम्बन्धी प्रश्न ८२५ ६४ सिद्ध आत्माकी लोकालोक-प्रकाशकता. अगुरु लघुता ८२६ ६५ आत्मध्यानके लिये ज्ञान-तारतम्यतादि ८२६ । ६६ जगतका त्रिकालवर्तित्व ' ८२६ ६७ वस्तुका अस्तित्व, दो प्रकारका पदार्थस्वभाव स्पष्ट ८२६ ८२५ य ८२१ ।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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