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________________ ६५२ श्रीमद् राजचन्द्र अमक अशमे होनेके लिये जिस कल्याणरूप अवलबनको आवश्यकता है, वह समझमे आना, प्रतीत होना, और अमुक स्वभावसे आत्मामे स्थित होना कठिन है ! यदि वैसा कोई योग बने तो और जीव शुद्धनैष्ठिक हो तो, शातिका मार्ग प्राप्त होता है, ऐसा निश्चय है । प्रमत्त स्वभावकी जय करनेके लिये प्रयत्ल करना योग्य है। ___इस संसाररणभूमिमे दुषमकालरूप ग्रीष्मके उदयके योगका वेदन न करे, ऐसी स्थितिका विरल जीव अभ्यास करते हैं। ८९९ मोहमयी, कार्तिक सुदी ५, बुध, १९५६ सर्व सावध आरभकी निवृत्तिपूर्वक दो घडीसे अर्ध प्रहरपर्यंत 'स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षा' आदि ग्रथकी नकल करनेका नित्यनियम योग्य है । (चार मासपर्यत)। ९०० बम्बई, कार्तिक सुदी ५, बुध, १९५६ अविरोध और एकता रहे ऐसा करना योग्य है, और यह सबके उपकारका मार्ग होना सम्भव है । भिन्नता मानकर प्रवृत्ति करनेसे जीव उलटा चलता है। अभिन्नता है, एकता है, इसमे कुछ गैरसमझसे भिन्नता मानते हैं, ऐसी उन जीवोको सीख मिले तो सन्मुखवृत्ति होने योग्य है । जहाँ तक अन्योन्य एकताका व्यवहार रहे वहाँ तक वह सर्वथा कर्तव्य है । ___९०१ बंबई, कार्तिक सुदी १५, १९५६ "गुरु गणघर गुणधर अधिक, प्रचुर परंपर और । प्रततपधर, तनु नगनघर, वंदौ वृषसिरमोर ॥' जगत विषयके विक्षेपमे स्वरूपभ्रातिसे विश्राति नही पाता। अनत अव्याबाध सुखका एक अनन्य उपाय स्वरूपस्थ होना यही है। यही हितकारी उपाय ज्ञानियोने देखा है। भगवान जिनने द्वादशागीका इसीलिये निरूपण किया है, और इसी उत्कृष्टतासे वह शोभित है, जयवत है। ज्ञानीके वाक्यके श्रवणसे उल्लासित होता हुआ जीव चेतन-जडको यथार्थरूपसे भिन्नस्वरूप प्रतीत करता है, अनुभव करता है, और अनुक्रमसे स्वरूपस्थ होता है। यथास्थित अनुभव होनेसे स्वरूपस्थ हो सकता है। दर्शनमोह नष्ट हो जानेसे ज्ञानोके मार्गमे परम भक्ति समुत्पन्न होती है, तत्त्वप्रतीति सम्यकपसे उत्पन्न होती है। १ भावार्थ-गुरु गणघर तथा परम्परागत बहुतसे गुणधारी, व्रत-तपघारी, दिगम्बर धर्मशिरोमणि, आचार्योंको वन्दन करता हूँ।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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