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________________ ७६८ श्रीमद राजचन्द्र तो यह सम्यक्त्व नहीं है। तीर्थंकर आदिने भी पूर्वकालमें इसका आराधन किया है, इसलिये पहलेसे ही उनमें सम्यक्त्व होता है, परन्तु दूसरोंको कुछ अमुक कुलमें, अमुक जातिमें या अमुक वर्गमें अथवा अमुक देशमें उत्पन्न होनेसे जन्मसे ही सम्यक्त्व हो, यह बात नहीं है । १६३. विचारके बिना ज्ञान नहीं होता । ज्ञानके बिना सुप्रतीति अर्थात् सम्यक्त्व नहीं होता । सम्यक्त्वके बिना चारित्र नहीं आता, और जब तक चारित्र नहीं आता तब तक केवलज्ञान प्राप्त नहीं होता, और जब तक केवलज्ञान प्राप्त नहीं होता तब तक मोक्ष नहीं है ; ऐसा देखने में आता है । १६४. देवका वर्णन । तत्त्व । जीवका स्वरूप ! १६५. कर्मरूपसे रहे हुए परमाणु केवलज्ञानीको दृश्य होते हैं, उनके सिवाय दूसरोंके लिये कोई निश्चित नियम नहीं होता । परमावधिवालेको उनका दृश्य होना सम्भव है, और मनःपर्यायज्ञानीको अमुक देशसे दृश्य होना सम्भव है | १६६. पदार्थमें अनन्त धर्म (गुण आदि) निहित हैं । उनका अनंतवाँ भाग वाणी से कहा जा सकता है । उसका अनंतवाँ भाग सूत्रमें गूंथा जा सकता है।- १६७. यथाप्रवृत्तिकरण, अनिवृत्तिकरण, अपूर्वकरणके बाद युंजनकरण और गुणकरण है । युंजनकरणको गुणकरणसे क्षय किया जा सकता है । १६८. युंजनकरण अर्थात् प्रकृतिको योजित करना । आत्मगुण जो ज्ञान, और उससे दर्शन, और उससे चारित्र, ऐसे गुणकरणसे युंजनकरणका क्षय किया जा सकता है । अमुक अमुक प्रकृति जो आत्मगुणरोधक है उसका गुणकरणसे क्षय किया जा सकता है । ... १६९. कर्मप्रकृति, उसके सूक्ष्मसे सूक्ष्मभाव, उसके बंध, उदय, उदीरणा, संक्रमण, सत्ता और क्षयभाव जो बताये गये हैं (वर्णित किये गये हैं ), वे परम सामर्थ्यके जिना वर्णित नहीं किये जा सकते । ...इनका वर्णन करनेवाला जीवकोटिका पुरुष नहीं, परन्तु ईश्वरकोटिका पुरुष होना चाहिये, ऐसी सुप्रतीति होती है । क 1. १७०. किस किस प्रकृतिका कैसे रससे क्षय हुआ होना चाहिये ? कौनसी प्रकृति सत्ता में हैं ? कौनसो उदयमें है किसने संक्रमण किया है ? इत्यादिका विधान करनेवालेने, उपर्युक्त के अनुसार प्रकृतिके स्वरूपको माप-तोल कर कहा है. उनके इस परमज्ञानकी बात एक ओर रहने दें तो भी यह कहनेवाला ईश्वरकोटिका का पुरुष होना चाहिये, यह निश्चित होता है । १७१. जातिस्मरणज्ञान मतिज्ञानके 'धारणा' नामके भेदके अंतर्गत है । वह पिछले भव जान सकता है । जहाँ तक पिछले भवमें असंज्ञीपना न आया हो वहाँ तक वह आगे चल सकता है । . १७२. (१) तीर्थंकरने आज्ञा न दी हो और जीव अपनी वस्तुके सिवाय परवस्तुका जो कुछ ग्रहण करता है वह पराया लिया हुआ और अदत्त' गिना जाता है । उस अदत्तमेंसे तीर्थंकरने परवस्तु जितनी ग्रहण करनेकी छूट दी है उतनेको अदत्त नहीं गिना जाता । (२) गुरुकी आज्ञाके अनुसार किये हुए वर्तनके सम्बन्धमें अदत्त नहीं गिना जाता
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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