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________________ २९ वा वर्ष ५६३ सर्व ज्ञानियोका निश्चय यहाँ आकर समा जाता है, ऐसा कहकर सद्गुरु मौन धारण कर सहज समाधिमे स्थित हुए, अर्थात् उन्होने वाणी योगकी प्रवृत्ति बद कर दी ॥११८|| .. शिष्यबोधबीजप्राप्तिकथन सद्गुरुना उपदेशथी, आव्यु अपूर्व भान । निजपद निजमांही ला , दूर थयु अज्ञान ॥११९॥ __शिष्यको सद्गुरुके उपदेशसे अपूर्व अर्थात् पहले कभी प्राप्त नही हुआ था ऐसा भान आया, और उसे अपना स्वरूप अपनेमे यथातथ्य भासित हुआ; और देहात्मबुद्धिरूप अज्ञान दूर हुआ ॥११९॥ भास्यु निजस्वरूप ते, शुद्ध चेतनारूप । अजर, अमर, अविनाशी ने, देहातीत स्वरूप ॥१२०॥ अपना स्वरूप शुद्ध चैतन्यस्वरूप, अजर, अमर, अविनाशी और देहसे स्पष्ट भिन्न भासित हुआ ॥१२०॥ कर्ता भोक्ता कर्मनो, विभाव वर्ते ज्यांय । वृत्ति वही निजभावमा, थयो अकर्ता त्यांय ॥१२१॥, जहाँ विभाव अर्थात् मिथ्यात्व है, वहाँ मुख्य नयसे कर्मका कर्तृत्व और भोक्तृत्व है, आत्मस्वभाव मे वृत्ति बही, उससे अकर्ता हुआ ।।१२१।। अथवा निजपरिणाम जे, शुद्ध चेतनारूप। कर्ता भोक्ता तेहनो, निर्विकल्प स्वरूप ॥१२२॥ अथवा आत्मपरिणाम जो शुद्ध चैतन्यस्वरूप है, उसका निर्विकल्परूपसे कर्ता-भोक्ता हुआ ॥१२२॥ मोक्ष को निजशुद्धता, ते पामे ते पथ। समजाव्यो सक्षेपमां, सकळ मार्ग निग्रंथ ॥१२३॥ आत्माका जो शुद्ध पद है वह मोक्ष है और जिससे वह प्राप्त किया जाये, वह उसका मार्ग है, श्री सद्गुरुने कृपा करके निग्रंथका सारा मार्ग समझाया ॥१२३।। अहो ! अहो! श्री सद्गुरु, करुणा सिंधु अपार । आ पामर पर प्रभु कर्यो, अहो ! अहो! उपकार ॥१२४॥ अहो | अहो । करुणाके अपार समुद्रस्वरूप, आत्मलक्ष्मीसे युक्त सद्गुरु, आप प्रभुने इस पामर जीवपर आश्चर्यकारक उपकार किया है ॥१२४॥ शं प्रभु चरण कने धरु, आत्माथी सौ हीन। ते तो प्रभुए आपियो, वतुं चरणाधीन ॥१२५॥ मै प्रभके चरणोमे क्या रखें ? (सद्गुरु तो परम निष्काम है, केवल निष्काम करुणासे मात्र उपदेशके दाता है, परतु शिष्यने शिष्यधर्मानुसार यह वचन कहा है। ) जगतमे जो जो पदार्थ हैं वे सव आत्माकी अपेक्षासे मल्यहीन जैसे हैं, वह आत्मा तो जिसने दिया उसके चरणोमे मैं अन्य क्या रखू ? मैं केवल उपचारसे इतना करनेको समर्थ हूँ कि मै एक प्रभुके चरणोंके ही अधीन रहे ॥१२५॥ आ देहादि आजथी, वर्तो प्रभु आधीन। दास, दास हु दात छु, तेह प्रभुनो दोन ॥१२६॥ यह देड, 'आदि' शब्दसे जो कुछ मेरा माना जाता है, वह आजसे सद्गुरु प्रभुके अधीन रहे । मैं उस प्रभुका दास हूँ, दास हूँ दीनदास हूं ||१२६।।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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