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________________ श्रीमद राजचन्द्र तृतीय चित्र एकत्वभावना ( उपजाति ) शरीरमां व्याधि प्रत्यक्ष थाय, ते कोई अन्ये लई ना शकाय । ए भोगवे एक स्व-आत्म पोते, एकत्व एथी नयसुज्ञ गोते ॥ विशेषार्थ - शरीरमे प्रत्यक्ष दीखनेवाले रोग आदि जो उपद्रव होते है वे स्नेही, कुटुम्बी, पत्नी या पुत्र किसीसे लिये नही जा सकते, उन्हे मात्र एक अपना आत्मा स्वयं ही भोगता है । इसमे कोई भी भागी नही होता । तथा पाप-पुण्य आदि सभी विपाक अपना आत्मा ही भोगता है । यह अकेला आता है, अकेला जाता है, ऐसा सिद्ध करके विवेकको भलीभाँति जाननेवाले पुरुष एकत्वको निरन्तर खोजते हैं । दृष्टांत - महापुरुष के इस न्यायको अचल करनेवाले नमिराजर्षि और शक्रेंद्रका वैराग्योपदेशक सवाद यहॉपर प्रदर्शित करते है | नमिराजर्षि मिथिला नगरीके राजेश्वर थे । स्त्री, पुत्र आदिसे विशेष दुःख समूह को प्राप्त न होते हुए भी एकत्व के स्वरूपको परिपूर्ण पहचाननेमे राजेश्वरने किंचित् विभ्रम किया नही है । शक्रेद्र पहले जहाँ नमिराजपि निवृत्तिमे विराजते हैं, वहाँ विप्ररूपमे आकर परीक्षा हेतुसे अपना व्याख्यान शुरू करता है विप्र-- हे राजन् | मिथिला नगरी मे आज प्रबल कोलाहल व्याप्त हो रहा है । हृदय एव मनको उद्वेग करनेवाले विलापके शब्दोंसे राजमंदिर और सामान्य घर छाये हुए है । मात्र तेरी दीक्षा ही इन सब दुखोका हेतु है । परके आत्माको जो दुख अपनेसे होता है उस दुःखको संसारपरिभ्रमणका कारण मानकर तू वहाँ जा, भोला न बन । नमिराज—(गौरवभरे वचनोसे) हे विप्र । तू जो कहता है वह मात्र अज्ञानरूप है। मिथिला नगरी मे एक बगीचा था, उसके मध्यमे एक वृक्ष था, शीतल छायाके कारण वह रमणीय था, पत्र, पुष्प और फलसे वह युक्त था, नाना प्रकार के पक्षियोको वह लाभदायक था, वायु द्वारा कपित होनेसे उस वृक्षमे रहनेवाले पक्षी दु खार्तं एवं शरणरहित हो जाने से आक्रद करते है । वे स्वय वृक्षके लिये विलाप करते नही हैं, अपना सुख न हो गया, इसलिये वै शोकातं है । ४२ -- विप्र – परन्तु यह देख | अग्नि और वायुके मिश्रणसे तेरा नगर, तेरे अन्त पुर और मन्दिर जल रहे है, इसलिये वहाँ जा और उस अग्निको ज्ञात कर 1 नमिराज - हे विप्र | मिथिला नगरी, उन अन्त पुरो और उन मन्दिरोके जलने से मेरा कुछ भी नही जलता है, जैसे सुखोत्पत्ति है वैसे मै वर्तन करता हूँ । उन मंदिर आदिमे मेरा अल्पमात्र भी नही है । मैंने पुत्र, स्त्री आदिके व्यवहारको छोड दिया है । मुझे इनमेसे कुछ प्रिय नही है और अप्रिय भी नही है | विप्र - परन्तु हे राजन् | तू अपनी नगरीके लिये सघन किला बनाकर, सिंहद्वार, कोठे, किवाड़ और भुगाल बनाकर और शतघ्नी खाई बनवानेके बाद जाना । मिराज - ( हेतु-कारण- प्रे० ) हे विप्र ! में शुद्ध श्रद्धारूपी नगरी बनाकर, सवररूपी भुंगाल बनाकर, क्षमारूपी शुभ गढ बनाऊँगा, शुभ, मनोयोगरूपी कोठे वनाऊँगा, वचनयोगरूपी खाई बनाऊँगा, कायायोगरूपी शतघ्नी बनाऊँगा, पराक्रमरूपी धनुष करूँगा, ईर्यासमितिरूपी पनच करूँगा, धीरतारूपी कमान पकड़ने की मूठ करूंगा, सत्यरूपी चापसे धनुष्को बाँधूंगा, तपरूपी वाण करूंगा और कर्मरूपी वैरीकी सेनाका भेदन करूँगा । लौकिक सग्रामकी मुझे रुचि नहीं है। मैं मात्र वैसे भावसंग्रामको चाहता हूँ । १. हेतु और कारणसे प्रेरित ।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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