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________________ उपदेश छाया । ७२७ चैतन्यकी रटन रहे तो चैतन्य प्राप्त होता है, चैतन्य अनुभवगोचर होता है। सद्गुरुके वैचनका श्रवण करे, मनन करे, और आत्मामे परिणत करे तो कल्याण होता है। ज्ञान और अनुभव हो तो मोक्ष होता है। व्यवहारका निषेध न करे, अकेले व्यवहारको पकड़न रखें। आत्मज्ञानकी बात इस तरह करना योग्य नही कि वह सामान्य हो जाये । आत्मज्ञानकी बात एकांत मे कहे । आत्माके अस्तित्वका विचार किया जाये, तो अनुभवमे आता है, नही तो उसमे शंका होती है। जैसे किसी मनुष्यको अधिक पटल होनेसे नही दीखता, उसी तरह आवरणकी सलग्नताके कारण आत्माको नही दीखता। नीदमे भी आत्माको सामान्यत जागृति रहती है। आत्मा सर्वथा नही सोता, उसपर आवरण आ जाता है । आत्मा हो तो ज्ञान होता है । जड़ हो तो ज्ञान किसे हो ? अपनेको अपना भान होना, स्वय अपना ज्ञान पाना, जीवन्मुक्त होना। " 'चैतन्य एक हो तो भ्राति किसे हुई ? मोक्ष किसका हुआ? सभी चैतन्यकी 'जाति एक है, परन्तु प्रत्येक चैतन्यकी स्वतंत्रता है, भिन्न भिन्न है। चैतन्यका'' स्वभाव एक है । मोक्ष स्वानुभवगोचर है। निरावरणमे भेद नही है। परमाणु एकत्रित न हो अर्थात् आत्माका जब परमाणुसे 'सबध न हो तब मुक्ति है, परस्वरूपमे नही मिलना वह मुक्ति है। " । ' कल्याण करने, न करनेका तो भान नही है, परन्तु जीवको अपनापन रखना है। बंध कब तक होता है ? जीव चैतन्य न हो तब तक । एकेंद्रिय आदि योनि हो तो भी जीवका ज्ञानस्वभाव सर्वथा लुप्त नही हो जाता, अशसे खुला रहता है । अनादि कालसे जीव बँधा हुआ है । निरावरण होनेके बाद नही बंधता। 'मै जानता हूँ', ऐसा जो अभिमान है वह चैतन्यकी अशुद्धता है।' इस जगतमे बंध और मोक्ष न होते तो फिर श्रुतिका उपदेश किसके लिये ? आत्मा स्वभावसे सर्वथा निष्क्रिय है, प्रयोगसे सक्रिय है। जब निर्विकल्प समाधि होती है तभी निष्क्रियता कही है। निर्विवादरूपसे वेदातका विचार करनेमे बाधा नही है। आत्म अर्हतपदका विचार करे तो अहंत होता है। सिद्धपदका विचार करें तो सिद्ध होता है। आचार्यपदका विचार करे तो आचार्य होता है । उपाध्यायका विचार करे तो उपाध्याय होता है । स्त्रीरूपका विचार करे तो स्त्री हो जाता है, अर्थात् आत्मा जिस स्वरूपका विचार करे तद्रूप भावात्मा हो जाता है । आत्मा एक है या अनेक है इसकी चिन्ता न करे । हमें तो यह विचार करनेकी जरूरत है कि 'मैं एक हूँ' । जगतको मिलानेकी क्या जरूरत है ? एक-अनेकका विचार बहुत आगेकी दशामे पहुँचनेके बाद करना है। जगत और आत्माको स्वप्नमें भी एक न समझें। आत्मा अचल है, निरांवरण है । वेदात सुनकर भी आत्माको पहचानें । आत्मा सर्वव्यापर्क है या आत्मा देहमे है, यह प्रत्यक्ष अनुभवगम्य है। ' . सभी धर्मोका तात्पर्य यह है कि आत्माको पहचाने । दूसरे सब जो साधन हैं, वे जिस जगह चाहिये (योग्य हैं) वहाँ ज्ञानीकी आज्ञासे उपयोग करते हुए अधिकारी जीवको फल होता है । दया आदि आत्माके निमल होनेके साधन है। मिथ्यात्व, प्रमाद, अव्रत, अशुभयोग, ये अनुक्रमसे जाये तो सत्पुरुषका वचन आत्मामे परिणाम पाता है, उससे सभी दोषोंका अनुक्रमसे नाश होता है । आत्मज्ञान विचारसे होता है। सत्पुरुप तो पुकारपुकार कर कह गये हैं, परन्तु जीव लोकमार्गमे पडा है, और उसे लोकोत्तरमार्ग मानता है। इसलिये किसी तरह भी दोष नही जाते । लोकका भय छोड़कर सत्पुरुपोंके वचन, आत्मामे परिणमित करे तो सब दोष चले जाते हैं । जीव ममत्व न लाये, बड़प्पन और महत्ता छोड़े बिना सम्यक् मार्ग आत्मामे परिणाम नही पाता। वाचक विषयमें .-परमार्थहेतु नदो उतरनेके लिये ठडे पानीको मुनिको आज्ञा दो है, परन्तु अब्रह्मचर्यको आज्ञा नही दी है. और उसके लिये कहा है कि अल्प आहार करना, उपवास करना, एकातर करना, अन्तमे जहर खाकर मर जाना; परन्तु ब्रह्मचर्यका भग मत ।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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