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________________ ७२ श्रीमद राजचन्द्र अठानवे भाइयोको वदन करना पडेगा । इसलिये वहाँ तो जाना योग्य नही ।" फिर वनमे वह एकाग्र व्यानमे रहा। धीरे-धीरे बारह मास हो गये । महातपसे काया हड्डियोका ढाँचा हो गयी । वह सूखे पेड जेमा दीखने लगा, परतु जब तक मानका अकुर उसके अत करणसे हटा न था तब तक उसने सिद्धि नही पायी । ब्राह्मी ओर सुंदरीने आकर उसे उपदेश दिया, "आर्य वीर। अब मदोन्मत्त हाथीसे उतरिये, इसके कारण तो बहुत मन किया ।" उनके इन वचनोसे बाहुवल विचारमे पडा । विचार करते-करते उसे भान हुआ, "सत्य है । मैं मानरूपी मदोन्मत्त हाथीमे अभी कहाँ उतरा हूँ ? अब इससे उतरना ही मंगलकारक है।" ऐसा कहकर उसने वदन करनेके लिये कदम उठाया कि वह अनुपम दिव्य कैवल्यकमलाको प्राप्त हुआ । पाठक | देखो, मान कैसी दुरित वस्तु है || शिक्षापाठ १८ चार गति ' सातावेदनीय और अमातावेदनीयका वेदन करता हुआ शुभाशुभ कर्मका फल भोगने के लिये इस समारवनमे जीव चार गतियोमे भ्रमण करता रहता है।' ये चार गति अवश्य जाननी चाहिये । १. नरकगति - महारभ, मदिरापान, मासभक्षण इत्यादि तीव्र हिमाके करनेवाले जीव भयानक नरकमे पडते हैं । वहाँ लेशमात्र भी साता, विश्राम या सुख नही है । महान अंधकार व्याप्त है । अगछेदन सहन करना पडता है, अग्निमे जलना पड़ता है, और छरपलाकी धार जैसा जल पीना पड़ता है। जहाँ अनत दुखसे प्राणीभूतोको तगी, अमाता और विलविलाहटको सहन करना पडता है, जिन दुखोको केवलज्ञानी भी नहीं कह सकते । अहोहो || वे दु ख अनत वार इस आत्माने भोगे हैं । २ तिर्यचगति – छल, झूठ, प्रपच इत्यादिके कारण जीव सिंह, वाघ, हाथी, मृग, गाय, भैंस, बैल इत्यादितियंचके गरीर धारण करता है । इस तिर्यंचगतिमे भूख, प्यास, ताप, वध, वंधन, ताडन, भारवाहन इत्यादिके दुख सहन करता है । ३ मनुष्यगति - खाद्य, अखाद्यके विषयमे विवेकरहित है, लज्जाहीन, माता-पुत्रीके साथ कामगमन करनेमे जिन्हे पापापापका भान नही है, निरतर मास भक्षण, चोरी, परस्त्रीगमन इत्यादि महापातक किया करते हैं, ये तो मानो अनार्य देशके अनार्य मनुष्य ह । आर्य देगमे भी क्षत्रिय, ब्राह्मण, वैश्य आदि मतिहीन, दरिद्री, अज्ञान और रोगसे पीडित मनुष्य है । मान-अपमान इत्यादि अनेक प्रकारके दुख वे भोग रहे है । ४ देवगति - परस्पर वैर, द्वेप, क्लेग, शोक, मत्सर, काम, मद, क्षुवा, इत्यादिसे देवता भी आयु व्यतीत कर रहे हैं, यह देवगति है । इम प्रकार चार गति मामान्यरूपसे कही । इन चारो गनियोमे मनुष्यगति सबसे श्रेष्ठ और दुर्लभ है । आत्माका परम हित मोक्ष इस गतिसे प्राप्त होता है । इस मनुष्यगतिमे भी कितने ही दुख और आत्ममाधन करनेमें अतराय है । एक तरुण मुकुमारको रोम रोममे लाल अंगारे सूएँ भोकनेसे जो असह्य वेदना उत्पन्न होती है, उसमे आठ गुनी वेदना गर्भस्थानमे रहते हुए जीव पाता है । मल, मूत्र, लहू, पीप आदिमे लगभग नौ महीने अहोरात्र मूर्च्छागत स्थितिमे वेदना भोग भोगकर जन्म पाता है । जन्मके समय गर्भस्थानकी वेदनासे अन गुनी वेदना उत्पन्न होती है । उसके बाद बाल्यावस्था प्राप्त होती है । मल, मूत्र, धूल और नग्नावस्थामे नाममझीमे रो-भटककर यह बाल्यावस्था पूर्ण होती है, और युवावस्था आती है। धनउपार्जन करनेके लिये नाना प्रकारके पाप करने पडते हैं । जहाँसे उत्पन्न हुआ है वहाँ अर्थात् वविकार वृत्ति जाती है | उन्माद, आलस्य, अभिमान, निद्यदृष्टि, सयोग, वियोग आदिके चक्कर मे युवा १ द्वि० आ० पाठा०—'मसारवनमें जीव मातावेदनीय-असातावेदनीयका वेदन करता हुआ शुभाशुभ कर्मफल भोगने के लिये इन चार गतियोंमें भ्रमण करता रहता है ।'
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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