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, श्रीमद् राजचन्द्रः . . मूर्त पुद्गल और अमूर्त जीवका संयोग कैसे घटित हो? ..... .. .. .::. .. धर्म, अधर्म और जीव द्रव्यकी क्षेत्रव्यापिता,जिस..प्रकारसे जिनेन्द्र कहते हैं, तदनुसार माननेसे वे द्रव्य उत्पन्न-स्वभावीकी तरह सिद्ध हो जाते हैं, क्योंकि मध्यम-परिणामिता है।
धर्म, अधर्म और आकाश ये वस्तुएँ द्रव्यरूपसे एक जाति और गुणरूपसे भिन्न जाति ऐसा मानना योग्य है, अथवा द्रव्यता भी भिन्न भिन्न मानने योग्य है ? .
संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ १५९] द्रव्यका क्या अर्थ है ? गुणपर्यायके बिना उसका दूसरा क्या स्वरूप है ?
केवलज्ञान सर्व द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावका ज्ञायक सिद्ध हो तो सर्व वस्तु नियत मर्यादामें आ जाये, अनंतता सिद्ध न हो, क्योंकि अनंतता-अनादिता समझी नहीं जाती, अर्थात् केवलज्ञानमें वे किस तरह प्रतिभासित हों ? उसका विचार बराबर संगत नहीं होता।
७२ . [संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ १६२. जिसे जैनदर्शन सर्वप्रकाशकता कहता है, उसे वेदांत सर्वव्यापकता कहता है । दृष्ट वस्तुसे अदृष्ट वस्तुका विचार अनुसंधान करने योग्य है। जिनेन्द्रके अभिप्रायसे आत्माको माननेसे यहाँ लिखे हुए प्रसंगोंके बारेमें अधिक विचार करें१. असंख्यात प्रदेशका मुल परिमाण । २. संकोच-विकास हो सके ऐसा आत्मा माना है; वह संकोच-विकास क्या अरूपीमें होने योग्य
है ? तथा किस प्रकारसे होने योग्य है ? . ...... ३. निगोद अवस्थाका क्या कछ विशेष कारण है ?... . ..... ४. सर्व द्रव्य,क्षेत्र आदिकी प्रकाशकतारूप केवलज्ञानस्वभावी आत्मा है, ' अथवा स्वस्वरूपमें अव
स्थित निजज्ञानमय केवलज्ञान है? ५. आत्मामें योगसे विपरिणाम है ? स्वभावसे विपरिणाम है ? विपरिणाम आत्माकी मूल सत्ता है ? संयोगी सत्ता है ? उस सत्ताका कौनसा द्रव्य मूल कारण है ?
... [संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ १६३] ६. चेतन होनाधिक अवस्था प्राप्त करे, इसमें कुछ विशेष कारण है ? स्वस्वभावका ? पुद्गल
संयोगका या उससे व्यतिरिक्त ? ७. जिस तरह मोक्षपदमें आत्मता प्रगट हो उस तरह मूल द्रव्य मानें तो लोकव्यापकप्रमाण
आत्मा न होनेका क्या कारण ? ८. ज्ञान गुण और आत्मा गुणी इस तथ्यको घटाते हुए आत्माको कथंचित् ज्ञानव्यतिरिक्त मानना
सो किस अपेक्षासे ? जडत्व भावसे या अन्य गुणको अपेक्षासे ? । ९. मध्यम परिणामवाली वस्तुकी नित्यता किस तरह सम्भव है ? १०. शद्ध चेतनमें अनेककी संख्याका भेद किस कारणसे घटित होता है ? ..... :..
• ७३ .. .... ...: : [संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ. १६५] जिनसे मार्गका प्रवर्तन हुआ है, ऐसे महापुरुषके विचार, बल, निर्भयता आदि गुण भी महान थे।
एक राज्यके प्राप्त करने में जो. पराक्रम अपेक्षित है उसको अपेक्षा अपूर्व अभिप्रायसहित धर्मसंततिका प्रवर्तन करने में विशेष पराक्रम अपेक्षित है।