Book Title: Shrimad Rajchandra
Author(s): Hansraj Jain
Publisher: Shrimad Rajchandra Ashram
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८५८
श्रीमद् राजचन्द्र
अवतरण
स्थल
पृष्ठ-पंक्ति देहाभिमाने गलिते, विज्ञाते परमात्मनि । यत्र यत्र मनो याति तत्र-तत्र समाधयः ।। [दगदृश्यविवेक, गा० ३० पृ० ४३ शंकराचार्य]
२७८-१९ दुर्बळ दह ने मारा उपवासी जो छे मायारंग रे । तोपण गर्भ अनंता लेशे, बोले बी अंग रे ॥ तवन ढाल ८ गाथा ११-यशोविजयजी
७०६-१६ धन्य ने मुनिवरा रे जे चाले समभावे, ज्ञानवंत ज्ञानी मळतां, तन मन वचने साचा, द्रव्यभाव सुधा जे भाखे, साची जिननी वाचा रे । घन्य० सिद्धांतरहस्य, सीमंघरजिन-स्तवन-यशोविजयजी]
६५५-२१ धम्मो मंगलमुक्किठें अहिंसा संजमो तवो। देवा वि तं नमसंति, जस्स धम्मे सया मणो || दशकालिक सूत्र १-१]
७९४-८ धार तरवारनी सोहली, दोहली-चोदमा जिन तणी चरणसेवा । धार पर नाचता, देख बाजी गरा सेवना धार पर रहे न देवा ॥ [आनंदघन चोवीशी, अनंतनाथजिन-स्तवन]
३७६-२२ (इंदसदवंदियाणं तिहुअणहिदमधुरविसदवक्काणं । अंतानीदगुणाणं) णमो जिणाणं जिदभवाणं ॥ पंचास्तिकाय ?, कुंदकुन्दस्वामी] ८३३-२७; ८३४-७ नमो दुर्वाररागादि वैरिवारनिवारिणे । अर्हते योगिनाथाय महावीराय तायिने ।।
[योगशास्त्र १-१ हेमचंद्र आचार्य] ६८३-१९ नाके रूप निहाळता
[?]
६४१-२४ नागरमुख पामर नव जाणे, वल्लभसुख न कुमारी रे । अनुभव विण तेम व्यानतणु सुख, कोण जाणे नरनारी रे ?
[आठ योगदृष्टिकी तज्झाय ७-१ यशोविजयजी] ३१६-९; ३४५-११ नाही तो तनमें वी, पण चौबीस प्रधान । वामें नव पुनि ताहुमें, तीन अधिक कर जान ॥ [स्वरोदयज्ञान-चिदानन्दजी] १६३-१७ निजलंदन, ना मिले, हेरो वैकुंठ धाम । संतकृपाले पाइये, मो हरि सबसे ठाम ।।
मिाणेकदास
७१७-२६ (ठिग सेट्टा लवनत्तमा वा सभा सुहम्मा व सभाण सेट्ठा)। निव्याणसेट्टा नह मन्वनम्मा (ण णायपुत्ता परमत्यो नाणा) | मूत्रकृतांग १.६-२४] ३६-२० निमदिन नेनमें नीद न आये, नर तयहि नारायन पावे।
[सुन्दरदास] ४९५-२८ पडितमामि, निंदामि, गरिहानि, अप्पाणं बोसिरामि ।
[प्रतिक्रमण
७२८-३७ पनी पार कहा जावनी, मिटे न मन को चार । कोयन पर हो रोग हमार ॥
निमाविकातक ७१ यशोविजयजी] ५७८-२३ पनामा नविकी, निज-निदा गुणी नमता परे । का परिहार, रोग का आगमन द्वार ॥ स्वरोदयज्ञान-निदानंदजी
१६४-५

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