Book Title: Shrimad Rajchandra
Author(s): Hansraj Jain
Publisher: Shrimad Rajchandra Ashram

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Page 1042
________________ zoनदेनका मामय नशान। परिशिष्ट ५ ९०५ पादप-वृक्ष । प्रदेश-आकाशके जितने भागको एक अविभागी पुद्पादाम्बुज-चरणकमल । गलपरमाणु रोकता है उसमे अनेक परमाणुओको पापी जल-अयोग्य जल, जिस पानीको पीनेसे पाप हो। पार्थिवपाक-सत्तासे उत्पन्न । प्रदेशबंध-वधनेवाले कर्मोकी सख्याके निर्णयको प्रदेशपार्श्वनाथ तेईसवें तीर्थकर । बघ कहते हैं, अर्थात् आत्माके साथ कितने कर्मपिशुन-चुगलखोर, इधरकी उघर लगानेवाला । परमाणु बँधे हैं इसका निर्णय । पुण्यानुबंधी पुण्य-जो पुण्योदय आगे-आगे पुण्यका प्रदेशसंहारविसर्प-शरीरके कारण आत्माके प्रदेशा___कारण होता जाय। का सकुचित होना और फैलना । पुद्गल-वह अचेतन पदार्थ, जिसमें रूप, रस, गध प्रदेशोदय-कर्मोका प्रदेशोमें उदय होना, रस दिये __ और स्पर्श हो। बिना ही खिर जाना। पुरंदर-इन्द्र । प्रमाण-सम्यग्ज्ञान, वस्तुको सम्पूर्णरूपसे ग्रहण करनेपुरदरी चाप- इन्द्रधनुष । वाला ज्ञान । पुराणपुरुष-परमात्मा, सनातन पुरुष। आत्मा ही प्रमाणाबाधित-प्रमाणसे विचारते हुए जिसमें विरोध सनातन है। न आये। पुरुषवेद-जिस कपायके उदयमें जीवको स्त्रीसभोगको प्रमाद-धर्मका अनादर, उन्माद, आलस्य और कपाय इच्छा हो। ये सब प्रमादके लक्षण है । (मोक्षमाला-५०) पुलाकलब्धि-जिस लब्धिके बलसे जीव चक्रवर्तीके प्रमोद-अशमात्र भी किसीका गुण देखकर उल्लाससैन्यका भी नाश कर सके। पूर्वक रोमाचित होना । (आक ६२) पूर्णकामता-कृतकृत्यता। बारह अंग-आचाराग, सूत्रकृताग, स्थानाग, समपूर्व पश्चात्-आगे-पीछे। वायाग, भगवती (व्याख्याप्रज्ञप्ति), ज्ञाताधर्मकथा, पूर्वानुपूर्व-पूर्व-क्रमानुसार, पहले प्राप्त हुई वस्तु । उपासकदशाग, अन्तकृत्दशाग, अनुत्तरीपपातिकपूर्वापर अविरोध-आगे-पीछे जिसमे विरोध न हो। दशाग, प्रश्नव्याकरण, विपाकसूत्र ओर दृप्टिवाद । प्रकृतिबंध-मोहादिजनक तथा ज्ञानादि घातक स्व. बारह गुण-अरिहत भगवानके वारह गुण हैं - भाववाले कार्मण पुद्गलस्कघोका आत्मासे सवध (१) वचनातिशय, (२) ज्ञानातिशय, (३) अपाया होनेको प्रकृतिवध कहते हैं । (जैनसिद्धात प्रवेशिका) पगमातिशय, (४) पूजातिशय, (५) अशोकवृक्ष, प्रज्ञा-बुद्धि । (६) कुसुमवृष्टि, (७) दिव्यध्वनि, (८) चामर, प्रज्ञापना-प्ररूपणा, निरूपण । (९) आसन, (१०) भामडल, (११) भेरी, (१२) प्रज्ञापनीयता-जतानेयोग्य वर्णन । छत्र । इनमें चार अतिशय और आठ प्रातिहार्य प्रतिक्रमण-हुए दोपोका पश्चात्तापकर पीछे हटना। ___ कहे जाते हैं। प्रतिपल-प्रतिक्षण, हर समय । वारह तप-अनशन, अवमौदर्य, वृत्तिसक्षेप, रसपरिप्रतिबंध-परवस्तुओमें मोह, रुकावट, विघ्न, बाघा । त्याग, विविक्त शय्यासन, कायक्लेश, प्रायश्चित्त, प्रतिश्रोती-स्वीकारनेवाला । विनय, वैयावृत्त्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग और ध्यान । प्रत्याख्यान-वस्तुका त्याग करना । (विशेष देखें बारह व्रत-श्रावकके बारह व्रत हैं -अहिंमाणुव्रत, ___ मोक्षमाला शिक्षापाठ ३१) सत्याणुव्रत, मचौर्याणुव्रत, ब्रह्मचर्याणुव्रत ओर परिप्रत्येक बुद्ध-किसी वस्तुका निमित्त पाकर जिसे बोध ग्रहपरिमाणाणुव्रत ये पाच अणुव्रत कहे जाते है। हुआ हो, जैसे-करकडु आदि पुरुष । दिखत, देशवत और जनयंदवत तीन गुणवत प्रत्येकशरीर-हरेक जीवका अलग-अलग शरीर । है । सामायिक, प्रोषधोपवास, उपभोगपरिभोगपरिप्रभुत्व-स्वामोपन, बड़ाई, महत्व । माण और अतिपिसदिमाग, ये चार शिक्षाप्रत।

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