Book Title: Shrimad Rajchandra
Author(s): Hansraj Jain
Publisher: Shrimad Rajchandra Ashram

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Page 1046
________________ !ि INST---- " 1 001 परिशिष्ट,५... ९०९, वीर-भ० महावीर, बलवान ।। ... Lsr_T. वीर्य-शक्ति, बल, पराक्रम, सामर्थ्य Trm शतक--सौका समुदाय - vis imire वीर्यातरायकर्म-आत्मशक्तिमें वाधक कमका प्रकार, शतावधान-एक साथ सौ बातोपर ध्यान देना (शताव: वृंद-समूह । । :- i धानके प्रकार के लिये देखें पृ९, १३६)-325 वृत्ति-परिणति, परिणाम, स्वभाव, प्रकृति-- , शवरी-रात्रि । वेद-नोकषायके उदयसे. उत्पन्न हुई, जीवकी मैथुन शंकर महादेव, सुख देनेवाला ! . ...करनेकी अभिलाषाको भाववेद कहते हैं और नाम- शाल्मलोवृक्ष-नरकके एक वृक्षका नाम । . कर्मके उदयसे आविर्भूत देहके चिह्नविशेषको, द्रव्य- शास्त्र-वीतरागी पुरुषोंके वचन । धर्मग्रन्थ ।' वेद कहते हैं। इस वेदके तीन भेद हैं, स्त्रीवेद, शास्त्रकार शास्त्र रचनार । S iriy. पुरुषवेद, नपुसकवेद । (जनसिद्धातप्रवेशिका) : शास्त्रावधान-शास्त्रमें चित्तकी एकाग्रता । वेदनीयकर्म-जिस कर्मक उदयसे जीव साता या, शिक्षाबोध-न्यायनीतिका उपदेश, अच्छी शिक्षा । ____ असाठा भोगे, सुखदु खकी सामग्री प्राप्त करें। शिथिलकर्म-जो कम विचार आदिसे 'दूर किया जा वेदान्त-वेदोके अतिम भाग (उपनिपद् तथा आरण्यक सके। आदि) जिसमें आत्मा, ईश्वर, जगत आदिका विवे- शुक्लध्यान-जीवीके शुद्ध परिणामोंसे जो ध्यान चन है, छह दर्शनामसे एक, जिसका उत्तरमीमासा: होता है। (मे समावेश है । (विशेष देखें आक ७११). शुद्धोपयोग-रागद्वेपरहित आत्माकी परिणति ।।.. वैराग्य-गृहकुटुवादि भावमें अनासक्तवृद्धि होना, शुभ उपयोग-मैदकषायरूप भाव। वीतरागपुरुषोको ...(आक ५०६). भक्ति, जीवदया, दान, संयम आदि रूप भाव । व्यतिरेक साम्यक अभावमें "साधनको अभाव, जैसे शुभद्रव्य जिस पदाथके निमित्त आत्मामे 'अच्छे ' अग्निके अभाव धमकी अभाव, भद; भिन्नता। प्रशस्तभाव हो । . 13 F INTE 55 व्यवनाशयकता विभाग खण्ड PM शुष्कज्ञानी--जिसे भेदज्ञान न हो, कथनमात्र अव्यात्मव्यवहार-सामान्य वरताव।1073 Ph वादी । (विशेषके लिये देखें आत्मसिद्धि'दोहा ५,६) व्यवहार आग्रह-बाह्य वस्तु, बाह्य क्रियाका आग्रह। शैलेशीकरण-पर्वतोमें बडा 'जो मेरु उसके समान ___जैसे कि इतना तो अवश्य करना चाहिये। . . निश्चल, अचलं । (व्याख्यानसार) - व्यवहारनय जो अभेद वस्तुको भेदरूपसे ग्रहण करे। श्रमण-सांध, मनि। ' ir) व्यवहारशुद्धि-आचारशुद्धि, शुद्ध आचरण; जो संसार श्रमणोपासक-श्रावक, ' वीतरागमार्गका' उपासक प्रवृत्ति इस लोक और परलोकमे सुखका कारण हो गृहस्थ । • उसका नाम व्यवहारशुद्धि है (आक ४८) - , श्रावक-ज्ञानीके वचनोको सुननेवाला। (विदोप देखें व्यवहारसयम-परमार्थसयमके कारणभूत : अन्य पृष्ठ ७४२ उपदेशछाया) 1 निमित्तोके ग्रहण करनेको- 'व्यवहारसयम'-कहा है। श्रुतज्ञान-मतिज्ञानसे सम्बन्ध लिये हुए-किसी दूसरे (आक ६६४) . in पदार्थके ज्ञानको भ्रुतज्ञान कहते है । जैसे-'घट' व्यसन-वरी लत; खराब, आदत । सामान्यरूपसे , व्यः शब्द सुननेके अनन्तर उत्पन्न हुआ कंबुग्रीवादिस्प सनके सात प्रकार हैं . जुआ, मास, मदिरा, वैश्या- (घटका ज्ञान । (जैनसिद्धान्तप्रवेशिका) .. गमन, शिकार, चोरी और परस्त्रीका सेवन । ये श्रेणिक-० " महावीरके समयमें मगवदेशका एक सातो व्यसन अवश्य त्यागने, योग्य है। , , प्रतापशाली राजा, भ० महावीरका परम भक्तः । व्यजनपर्याय-वस्तुके प्रदेशत्व गुणकी अवस्था (जन- श्रेणी-लोक मध्यभागसे ऊपर, नीचे तवा तिपदिशासिद्धान्तप्रवेशिका) - - मे क्रममे रेखावत रचनावाले प्रदेशोपी पति, जहाँ चारिशमोहनीयको इक्कीस प्रतियोगामसे व्यास-महाभारत और पराणोके रचयिता।

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