Book Title: Shrimad Rajchandra
Author(s): Hansraj Jain
Publisher: Shrimad Rajchandra Ashram

View full book text
Previous | Next

Page 1044
________________ परिशिष्ट ५ ९०७ मिताहारी-थोडा-परिमित भोजन करनेवाला। यतना-किसी भी जीवकी हिंसा न हो वैसे प्रवृत्ति मिथ्यादृष्टि-आत्मभानसे रहित । __करना । (देखे मोक्षमाला शिक्षापाठ २७) मिथ्यावासना-खोटे धर्मको सच्चा मानना, धर्मके यथार्थ-वास्तविक । नामपर सासारिक इच्छाओका पोषण (आक यशनामकर्म-जिस कर्मके' उदयसे यश फैले । याचकता-मांगनेका भाव । मिश्रगुणस्थान-सम्यक्मिथ्यात्व प्रकृतिके उदयसे जीव- यावज्जीवन-जब तक जीवन रहे, आजीवन । के न तो केवल सम्यक्त्व-परिणाम होते है और न युगलिया-भोगभूमिके जीव । केवल मिथ्यात्वरूप परिणाम होते है ऐसी भूमिका- योग-मन वचन कायके निमित्तसे आत्माके प्रदेशोंका का नाम मिश्रगुणस्थान है। चचल होना, मोक्ष के साथ आत्माका जुडना, मोक्षमुक्तिशिला-सिद्धस्थानके नीचे रही हुई ४५ लाख के कारणोको प्राप्ति, ध्यान । योजनप्रमाण सिद्धशिला । योगक्षेम-जो वस्तु न हो उसकी प्राप्ति और जो हो मुनि-जिसे अवधि, मन पर्ययज्ञान तथा केवलज्ञान हो। ___ उसका रक्षण, कुशलमगल । मुमुक्षु-मोक्षकी इच्छावाला, ससारसे छूटनेकी अभि योगदशा-ध्यानदशा। लाषावाला। योगदृष्टिसमुच्चय-योगका एक ग्रथ । मुमुक्षुता-सर्व प्रकारको मोहासक्तिसे अकुलाकर एक योगबिन्दु-श्रीहरिभद्राचार्यका योगसवधी ग्रंथ । मोक्षका ही यत्ल करना । (आक २५४) योगवासिष्ठ-वैराग्यपोषक एक ग्रथका नाम । मुंहपत्ती-मुंहके आगे रखनेका कपडेका टुकहा ।। योगस्फुरित-ध्यानदशासे प्रगटित । -परपदार्थके प्रति आसक्ति । योगानुयोग-योग आ मिलने से, सयोगवशात् । मूढदृष्टि-अज्ञानभाव, सझसद्के विवेकरहित मान्यता । योगीन्द्र-योगियोमें उत्तम । मृषा-असत्य, झूठ। योनि-उत्पत्तिस्थान । मेधावी-बुद्धिमान, तीव्र प्रज्ञावत । मेषोन्मेष-आँखका खुलना-मिचना । मैत्री-सर्व जगतसे निर्वैरबुद्धि (आक ५७) रहनेमि-भगवान नेमिनाथका भाई । मोक्ष-सर्वकमरहित आत्माकी शुद्ध अवस्था । आत्मासे राजसोवृत्ति-रजोगुणवाली वृत्ति, खाना-पीना और ___ कौका सर्वथा छूट जाना। मज़ा करना, पुद्गलानदी भाव । मोक्षमार्ग- सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र- राजमती-भगवान नेमिनाथकी मुख्य शिष्या । की एकता यह मोक्षमार्ग है । 'सम्यग्दर्शनज्ञान- रुचकप्रदेश-मेरुके मध्यभागमें आठ रुचकप्रदेश माने चारित्राणि मोक्षमार्ग.।' (तत्त्वार्थसूत्र) गये है कि जहाँसे दिशाओका प्रारम्भ होता है। मोक्षसुख-अलौकिक सुख, अनुपमेय अकथ्य आत्मानद। आत्माके भी आठ रुचकप्रदेश है, जिन्हें अवध कहा (देखे मोक्षमाला, शिक्षापाठ ७३) गया है। (विशेषके लिये देखें आक १३९) मोह-जो आत्माको पागल बना दे, स्व व परका भान रूपी-जिसमे रूप, रस, गध और स्पर्श हो उसे रूपी भुला दे, परपदार्थमे एकत्वबुद्धि करा दे। पदार्थ कहते हैं। मोहनीयकर्म-आठ कर्मों मेसे एक कर्म, जिसे कोका रौद्र-विकराल, भयानक । राजा कहते हैं। इसके प्रभावसे जीव स्वरूपको रौद्रध्यान-दुष्ट अभिप्रायवाला ध्यान । इसके चार भूलता है। भेद है --हिमानदी, मृपानदी, चोयांनदी और मोहमयी-बबई। विपयतरक्षणानदी, जर्यान् हिता, अमत्य, चोरी और परिग्रहमें जानद मानना। यह ज्यान नरा. यति-ध्यानमें स्थिर होकर श्रेणी चढ़नेवाला । गतिका कारण है। र

Loading...

Page Navigation
1 ... 1042 1043 1044 1045 1046 1047 1048 1049 1050 1051 1052 1053 1054 1055 1056 1057 1058 1059 1060 1061 1062 1063 1064 1065 1066 1067 1068