Book Title: Shrimad Rajchandra
Author(s): Hansraj Jain
Publisher: Shrimad Rajchandra Ashram

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Page 1048
________________ परिशिष्ट ५ सातावेदनीय - जिस कर्मके उदयसे जीवको सुखकी सामग्री मिले । साधु -- जो आत्मदशाको साधे, सज्जन, सामान्यत गृहवासका त्यागी, मूलगुणोका धारक सामायिक - समभावका लाभ, मन, वचन, कार्य और कृत, कारित, अनुमोदना हिंसादि पाच पापोका त्याग करना, दो घडी तक समताभाव में रहना । सिद्ध- -आठ कर्मोंसे मुक्त शुद्धात्मा, सिद्ध परमेष्ठी सिद्धांतबोध - पदार्थका जो सिद्ध हुआ / स्वरूप हो ज्ञानीपुरुषाने निष्कर्पसे जिस प्रकार से अन्तमें पदार्थ -, को जाना है, वह जिस प्रकारसे वाणी द्वारा कहाँ ? "जा सके " उस प्रकार बेताया है, 'ऐसा जो बोध है वह 'सिद्धान्तवोघ' है । ( आक ५०६ ) .. सिद्धि - कार्य पूर्ण होना, सफलता, निश्चय, निर्णय, ' प्रमाणित होना, मुक्ति, योगकी अष्ट सिद्धियों मानी गई हैं-- अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व और वशित्व । सिद्धिमोह - सिद्धियाँ प्राप्त करने और चमत्कार दिखानेका लालच सुखद - सुख देनेवाला । सुखाभास - कल्पित सुख, सुख नही" होनेपर भी सुख जैसा लगना । 277 हम " ९११ . निश्चित किया हुआ मार्ग या नियम । ( पृ० ७९५ व्याख्यानसार) } स्थितंप्रज्ञदशा - मनमें रही हुई सर्व वासनाओको 'जीव छोड दे और अन्तरात्मामे ही संतुष्ट रहकर आत्मस्थिरता पाये ऐसी दशा । ( गीता अ० : २ ) स्थितिबध - कर्मकी काल मर्यादा । * स्थितिस्थापकदशा - वीतरागदशा 'मूलस्थितिमें फिरसे JMYPEW ات IN आ जाना । स्यात्पद—- कथचित्, किसी एक प्रकारसे । उभयनय स्यात्पदा के ० (देखें समयसार विरोधध्वसिनि कलश-४) 1.7 स्याद्वाद - प्रत्येक वस्तु अनेकात' अर्थात् अनेक धर्मसंहित होती है, वस्तुके उन धर्मो को लक्षमें रखते हुए वर्त-" मान पदार्थके किसी एक धर्मको कहना स्याद्वाद या अनेकातवाद है । 1519 स्व उपयोग - आत्माका उपयोग । सुधर्मास्वामी - भ० महावीरके एक गणधर इनके रचे स्वधर्म - आत्माका धर्म, वस्तु को अपना स्वभाव स्वसमय - अपना दर्शन, मत, अपना शुद्ध आत्मा, अपने स्वभाव में परिणमनरूप अवस्था । 031( 3 स्वात्मानुभव - स्वसवेदन, 'अपने' 'आत्माका' अनुभव; 'एक सम्यक उपयोग हो तो स्वयक अनुभव हो जाता है कि कैंसो अनुभवदशा प्रगट होती है । (१० ७३७ उपदेशछाया) प्रय स्वच्छंद - अपनी इच्छानुसार चलना । "परमार्थका मार्ग - छोडकर वाणी कहता है यही अपनी चतुराई, और इसीको स्वच्छद कहा है । ( पृ० ७०८ उपदेशछाया) - स्वद्रव्य - अनतगुणपर्यायरूप अपना आत्मा ही स्वद्रव्य "है । (स्वद्रव्य-क्षेत्र-काल-भावके ंलिये देखें "पृष्ठ ८०९,’आभ्यतेरॅपरिणामावलोकन क्रम ७) हुए आगम वर्तमानमे विद्यमान हैं । सुधारस - मुखमै ' झरनेवाला एक प्रकारका रस, जिसे’ आत्मस्थिरताको साधन माना है, अनुभवरस' सुलभबोधि - जिसे सहजमें सम्यग्दर्शन हो सकें । सूर्यपुर - सूरतका पुरानो नाम >, ह स्पष्ट । सोपक्रम' आयुष्य - शिथिल, जिसे एकदम भोग लिया जाये । (व्याख्यानसारे)' ह स्कध —-दो अथवा दोसे अधिक परमाणुओं के समूहको हस्तामलकवत् -- हाथमे लिये हुए आँवलेकी तरह, स्वयं कहते हैं । 201 स्तभतीर्थ - खभात का ऐतिहासिक नाम । स्त्रोवेद कर्म-जिस कर्मके उदयसे पुरुषसयोगकी इच्छा हो । स्थविरकल्प - जो साधु वृद्ध हो गये है उनके लिये शास्त्रमर्यादासे वर्तन करनेका 43 2 हावभाव - शृगारयुक्त चेष्टा । हुडावसर्पिणीकाल --- अनेक 'कल्पोके बाद 'आनेवाला भयकरकाल, जिसमें धर्मकी विशेष हानि होकर मिथ्या धमका प्रचार होता है । 5-7 N बांधा हुआ - हेय - वजने योग्य पदार्थं । 3

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