Book Title: Shrimad Rajchandra
Author(s): Hansraj Jain
Publisher: Shrimad Rajchandra Ashram

View full book text
Previous | Next

Page 1045
________________ ९०८ श्रीमद् राजचन्द्र वाचाज्ञान-कहनेमात्र ज्ञान, परतु आत्मामे जिसका लब्धि-वीयांतराय कर्मके क्षय या क्षयोपशमसे प्राप्त परिणमन नही हुआ है। "सकल जगत ते ऐठवत् होनेवाली शक्ति, आत्माके चैतन्यगुणकी क्षयोपशम- अथवा स्वप्न समान, ते कहिये ज्ञानीदशा, बाकी हेतुक प्रगटता । श्रुतज्ञानके आवरणका क्षयोपशम वाचाज्ञान" (देखें आत्मसिद्धि दोहा १४०) प्राप्त होना। वारांगना-वेश्या । लब्धिवाक्य-अक्षर कम होते हुए भी जिस वाक्यमें वाल्मीकि-आदि कवि और रामायणके रचयिता । वहुत अर्थ समाया हुआ है, चमत्कारी वाक्य । वासना-मिथ्या विचार या इच्छा, सस्कार । ' लावण्य-अत्यन्त सुन्दरता। विकथा-खोटी कथा, ससारकी कथा। इसके चार लिंगदेहजन्यज्ञान-दश इन्द्रिय, पाँच विषय और भेद हैं - स्त्रीकथा, भोजनकथा, देशकथा, राजकथा। मनरूप जीवके सूक्ष्म शरीरसे उत्पन्न हुआ ज्ञान, विगमे वा–व्यय नाश होना । (मोक्षमाला, शिक्षापाठ अमुक चिह्न या साधनके निमित्तमे उत्पन्न ज्ञान। ८७, ८८, ८९) लेश्या-कपायसे अनुरजित योगोकी प्रवृत्ति । जीवके विचारदशा-'विचारवानके चित्तमें ससार कारागृह है, कृष्ण आदि द्रव्यकी तरह भासमान परिणाम समस्त लोक दु खसे आर्त है, भयाकुल है, रागद्वेषके (आक ७५२) प्राप्त फलसे जलता है।' ऐसे विचार जिस दशामें लोक-सब द्रव्योको आधार देनेवाला । उत्पन्न हो वह विचारदशा । (आक ५३७) लोकभावना-चौदहराजूप्रमाण लोकस्वरूपका चिन्तन। विच्छेद-वीचसे क्रम टूटना, नाश, वियोग। लोकसंज्ञा-शुद्धका अन्वेषण करनेसे तीर्थका उच्छेद वितिगिच्छा-जुगुप्सा, ग्लानि, सदेह ।। होना सभव है, ऐसा कहकर लोक प्रवृत्तिमें आदर विदेही दशा-देहके होते हुए भी जो अपने शुद्ध तथा श्रद्धा रखते हुए वैसा प्रवर्तन किये जाना, यह __आत्मस्वरूपमे रहता है ऐसे पुरुषकी दशा वह लोकसज्ञा है । (अध्यात्मसार) विदेहीदशा । जैसे श्रीमद् राजचन्द्र स्वय विदेहीदशालोकस्थिति-लोकरचना । वाले थे। लोकान-सिद्धालय । विपरिणाम-परिवर्तन, रूपातर, विपरीत परिणाम । लौकिक अभिनिवेश-द्रव्यादि लोभ, तृष्णा, दैहिक विपर्यास-विपरीत, मिथ्या । ___मान, कुल, जाति आदि सबधी मोह (आक ६७७) विभंगज्ञान-मिथ्यात्वसहित अवधिज्ञान, कुअवधिज्ञान । लौकिकदृष्टि-ससारवासी जीवो जैसी दृष्टि । इस लोक विभाव-रागद्वेपादि भाव, विशेष भाव, आत्मा स्वअथवा ससारसे सम्बन्धित दृष्टि । भावकी अपेक्षा आगे जाकर 'विशेषभाव' से परिणमे वह विभाव । (व्याख्यानसार १-२०५) वक्रता-टेढापन, असरलता । विमति-विशेष बुद्धि, मिथ्या बुद्धि । वनिता-स्त्री। विरोधाभास-दो बातोमे दीख पडनेवाला विरोध, वर्गणा-समान अविभाग प्रतिच्छेदोंके धारक कर्म ___मात्र विरोधका आभास ।। परमाणुके समूहको वर्ग कहते है और ऐसे वर्गोंके विवेक-सत्यासत्यको उनके स्वरूपसे समझनेका नाम समूहको वर्गणा कहते है । (जैनसिद्धातप्रवेशिका) विवेक है । (मोक्षमाला, शिक्षापाठ ५१) वंचनावुद्धि-सत्सग, सद्गुरु आदिमें मच्चे आत्मभावसे विषयमूर्छा-पाँच इन्द्रियोके विषयोमें आसक्ति । माहात्म्यबुद्धि होनी चाहिये सो नही होना, और विसर्जन-परित्याग, छोडना ।। अपने आत्मामे अज्ञानता ही निरतर चली आई है विस्रसापरिणाम-सहज परिणाम । इसलिये उसकी अल्पज्ञता,, लघुता विचारकर अमा- वीतराग-जिसने सासारिक वस्तुओ तथा सुखोके प्रति हात्म्यवृद्धि करनी चाहिये सो नही करना । ठगनेकी राग अथवा आसक्ति बिलकुल छोड दी है। सर्वज्ञ, वुद्धि । विशेपके लिये देखे आक ५२६ । केवली भगवान ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 1043 1044 1045 1046 1047 1048 1049 1050 1051 1052 1053 1054 1055 1056 1057 1058 1059 1060 1061 1062 1063 1064 1065 1066 1067 1068