Book Title: Shrimad Rajchandra
Author(s): Hansraj Jain
Publisher: Shrimad Rajchandra Ashram

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Page 1043
________________ ९०६ श्रीमद राजचन्द्र म वालजीव-अज्ञानी आत्मा । भावशून्य-भावरहित, बिना भावके । बाह्यपरिग्रह-वाहरके वे पदार्थ जिनमे जीव मोह भावश्रुत-श्रवणके द्वारा जिस ज्ञानको उत्पत्ति हो । करता है, इसके दस भेद है -क्षेत्र, घर, चाँदी, भावसमाधि-आत्माको स्वस्थता । सोना, धन (गाय भैंस आदि पशु), धान्य, दासी, भाष्य-विस्तारवाली टीका, किसी गूढ विषयका विस्तृत दास, कपडे ओर वर्तन। विवेचन । बाह्यभाव-लोकिकभाव, ससारभाव । भिन्नभाव-भिन्नता, अलगाव; भेद । बोजज्ञान-सम्यग्दर्शन । भेवज्ञान-जड चेतनका ज्ञान, स्वपर-विवेक । वीजचि सम्यक्त्व-परमार्थसम्यक्त्ववान पुरुषमें भूरसी दक्षिणा-रिश्वत; निश्चित राशिकी दक्षिणा । निष्काम श्रद्धा । (आक ४३१) भ्रांति-मिथ्याज्ञान, असदारोप, भ्रम, सशय । बोधवीज-सम्यग्दर्शन। ब्रह्मचर्य-आत्मामे रमणता, स्त्रीमात्रका त्याग । मतार्थी-"नहि कषाय उपशातता, नहि अतर वैराग्य । ब्रह्मरस-आत्म-अनुभव । सरळपणु न म यस्थता ए मतार्थी दुर्भाग्य ॥" देखें ब्रह्मविद्या-आत्मज्ञान। आत्मसिद्धि दोहा ३२। ब्रह्मांड-सम्पूर्ण विश्व । मतिज्ञान-इन्द्रिय तथा मनके निमित्तसे जो ज्ञान हो । व्राह्मीवेदना-आत्मासम्बधी वेदना, आतरिक पीडा। मध्यमा वाचा-मध्यम वाणी, बहुत जोरसे भी नही और बहुत धोरेसे भी नही ऐसी वाणी। भक्ति-वीतरागी पुरुषोंके गुणोमें लीनता । उनके गुण मध्यस्थता-उदासीनता, तटस्थता, रागद्वेषरहितता। गाना, स्तुति करना आदि क्रिया रूप भक्ति है। मनन-विचार । भद्रभरण-सज्जन पुरुषोंको पोषण देनेवाले। मनःपर्यायज्ञान-जो द्रव्य क्षेत्र काल भावकी मर्यादाअनिकता-सरलता, उत्तमता । सहित दूसरेके मनमें स्थित विकारी भावको स्पष्ट भय-एक मनोविकार जो आपत्ति या अनिष्टकी जाने। आशकासे मनमे उत्पन्न होता है, डर। __ महा आरम्भ-अतिशय आरभ, अर्थात् अत्यत हिंसक भयभंजन-भयको टालनेवाले । व्यापारादि कार्य। भयसंज्ञा-जिम प्रकृतिसे जीवको भय लगा करता है। महाप्रतिमा-अभिग्रहविशेष । भरत-भगवान ऋषभदेवके पुत्र प्रथम चक्रवर्ती। महामिथ्यात्व-गाढ विपरीतता, अत्यत अज्ञान कि भर्तृहरि-एक महान योगी हो गये हैं। जिसके उदयमें सदुपदेश भी जीवको न रुचे । भवनपति-एक प्रकारके देव । भवनोमे रहते है इस- महाविदेह-क्षेत्रविशेष, जहाँसे जीव सदैव मोक्षको ___लिये भवनवासी भी कहे जाते हैं । पा सकें। भवभ्रमण-ससारमें परिभ्रमण । महाव्रत-जिन व्रतोको साघु स्वीकारते हैं। भवस्थिति-ससारमें रहनेकी मर्यादा । मंत्र-गुप्त रहस्यपूर्ण वात, वे अक्षर, शब्द या वाक्य, भवितव्यता-प्रारब्ध, भाग्य, होनहार । जिनका इष्टसिद्धिके लिये जाप किया जाता है, भन्य-मोक्ष पानेकी योग्यतावाला । देवता अधिष्ठित अक्षरविशेष । भामिनी-स्त्री। माया-भ्राति, कपट। । भाव-परिणाम, गुण, पदार्थ, अभिप्राय । मायिकसुख-संसारका कल्पित सुख । भाप मानव-आत्माके जिन भावोंसे कर्मोका आगमन मार्गानुसारी-'आत्मज्ञानी पुरुषकी निष्काम भक्ति हो ऐसे रागद्वेषादि परिणाम | निराबाघरूपसे प्राप्त हो ऐसे गुण जिस जीवमें हो भावनय-जो नय भावको ग्रहण करे । वह जीव मार्गानुसारी है ऐसा श्री जिन कहते हैं।' भावनिद्रा-मिथ्यात्व, रागद्वेपादि परिणाम । (आफ ४३१)

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