Book Title: Shrimad Rajchandra
Author(s): Hansraj Jain
Publisher: Shrimad Rajchandra Ashram

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Page 1035
________________ ८९८ श्रीमद राजचन्द्र अकेला भोगेगा, ऐमा अन्त करणसे चिन्तन करना कल्याण-मगल, सत्पुरुषकी आज्ञानुसार चलना। , , सो एकत्वभावना (भावनावोध) कषाय-जो सम्यक्त्व, देशचारित्र, सकलचारित्र तथा एफनिष्ठा-एक ही वस्तुके प्रति पूर्ण श्रद्धा । यथाख्यात-चारियरूप परिणामोका घात करे अर्थात् एकभक्त-दिनमें एक ही वार खाना । न होने दे। (गो० जीवकाड) जो आत्माको कषे एकाको-अकेला। अर्थात् दु ख दे उसे कषाय कहते हैं । कषायके चार एकान्तवाद-वस्तुको एक धर्मस्वरूप मानना । भेद है - अनतानुवधी, अप्रत्याख्यानावरण, ओ प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन । जिन परिणामोसे ओघसंज्ञा-जिस क्रियाको करते हुए जीव लोककी, ससारकी वृद्धि हो वह कषाय है । (उपदेशछाया) सूत्रकी या गुरुके वचनको अपेक्षा नही रखता, कषायाध्यवसायस्थान-कषायके अश, कि जो कर्मोंआत्माके अध्यवसाय रहित कुछ क्रियादि किया की स्थितिमें कारण हैं।' करे । (अध्यात्मसार) . काकतालीयन्याय-कौएका ताड पर बैठना और औ अचानक ताडफलका गिर जाना इसी प्रकार सयोगवश किसी कार्यका अचानक सिद्ध हो जाना। औदयिकभाव-कर्मके उदयसे होनेवाला भाव, कर्म व ऐसा भाव । कर्मके उदयके साथ सम्बन्ध कामना-इच्छा, अभिलाषा । कामिनी-स्त्री। रखनेवाला जीवका विकारी भाव । औदारिक शरीर-स्थूल शरीर । मनुष्य और तिर्यचो कायोत्सर्ग-शरीरका ममत्व छोडकर आत्माके सन्मुख को यह शरीर होता है। होना, आत्मध्यान करना । छह आवश्यकोमेंसे एक आवश्यक। कार्मणशरीर-ज्ञानावरणादि आठ कर्मरूप शरीर । कदाग्रह-दुराग्रह, खोटी मान्यताकी दृढता । इन्द्रियोंके फार्मणवर्गणा-अनत परमाणुओका स्कन्ध, जो कार्मणनिग्रहका न होना, कुलधर्मका आग्रह, मान-श्लाघा शरीररूप परिणमता है। (जैनसिद्धान्तप्रवेशिका) ___ की कामना और अमध्यस्थता, यह कदाग्रह है। "मन वचन काया ने, कर्मनी वर्गणा” (अपूर्व अवसर (उपदेशछाया-९) गा० १७) फपिल-साख्यमतके प्रवर्तक । कालक्षेप-समय गवाना, समय खोना । करुणा-दया, दूसरेके दुख या पीडा-निवारणकी इच्छा। कालधर्म-समयके योग्य धर्म, मौत; मरण। . कर्म-जिससे आत्माको आवरण हो या वैसी क्रिया।। कालाणु-निश्चय कालद्रव्य । कर्मादानी धंधा-पन्द्रह प्रकारके कर्मादानी व्यापार। गुरु-मिथ्या वेषधारी आत्मज्ञानरहित ऐसे जो गुरु थावक (सद्गृहस्थ) को न करने कराने योग्य बन बैठे हैं। कार्य, कर्मोके आनेका मार्ग । कुपात्र-अयोग्य, किसी विषयका अनधिकारी, वह फर्मप्रकृति-कोंके भेद । जिसे दान देना शास्त्रमें निषिद्ध है। फर्मभूमि-जहाँ मनुष्य व्यापारादिके द्वारा आजीविका कूर्म-कछुआ। __चलाते हैं, मोक्षके योग्य क्षेत्र । कूटस्य-अटल, अचल।। फलुष-पाप, मल। कृत्रिम-नकली, बनावटी, बनाया हुआ । फल्पकाल-बीस कोडाकोडी सागरका काल, जिसमें केवलज्ञान-मात्र ज्ञान, केवल स्वभाव परिणामी ज्ञान। एक अवसर्पिणी और एक उत्सर्पिणीका काल (सस्मरण-पोथी तथा देखें आत्मसिद्धि-दोहा ११३) होता है। कैवल्य कमला-केवलज्ञानरूपी लक्ष्मी । कल्पना-जिससे किसी कार्यकी सिद्धि न हो ऐसे कौतुक-आश्चर्य, कुतुहल । विचार, मनकी तरग। फंखा-इच्छा, आकाक्षा।

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