Book Title: Shrimad Rajchandra
Author(s): Hansraj Jain
Publisher: Shrimad Rajchandra Ashram

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Page 1037
________________ ९०० श्रीमद राजचन्द्र मध्यलोक पूर्वसे पश्चिम एक रज्जुप्रमाण है, उतना चित्-ज्ञानस्वरूप आत्मा । ही लम्बा, चौडा और ऊँचा लोकका विभाग। चूर्णि-महात्माकृत भिन्न-भिन्न पदकी व्याख्या (सर्व घनवात-घनोदधि अथवा विमान आदिको आधारभूत विद्वानोके मदको चूरे वह चूणि ।) एक प्रकारकी कठिन वायु । चूवा-सुगधित पदार्थ, एक प्रकारका चदन । बनवातवलय-वलयाकारसे रही हुई घनवायु। चैतन्य-ज्ञानदर्शनमय जीव । चैतन्यघन-ज्ञानादि गुणोसे भरपूर । चक्ररल- चक्रवर्तीके चौदह रत्नोमेंसे एक। चौठाणिया रस-चतुर्थस्थानरूप रम । पुण्य पापरूप चक्रवर्ती सम्राट, भरत आदि क्षेत्रके छह खडोका प्रकृतियोमे तीव्र, तीव्रतर, तीव्रतम और अति तीव्रअधिपति । तमरूप रस, पापमें कटु, कटुतर, कटुतम और 'अत्यत चक्षुर्दशन-आँखसे दीखनेवाली वस्तुका-प्रथम जो कटुतम तथा पुण्यमे मधुर, मधुरतर, मधुरतम और सामान्य बोध हो।' अत्यत मधुरतम, इस प्रकार चार रसोमे चतुर्थस्थानचक्षुर्दर्शनावरण-दर्शनावरणीय कर्मकी एक ऐसी रूप रस । नीम और इक्षुरसके दृष्टातसे । (देखें प्रकृति कि जिसके उदयमें जीवको चक्ष दर्शन शतकनामा पचम कर्मग्रन्थ गाथा ६३ प्रकरणरत्ना(आँखसे होनेवाला सामान्य बोध) न हो । करके भाग ४ मे पृ० ६५२) प्रस्तुत ग्रन्थके पृ० चतुर्गति-चार गति । देतगति, मनुष्यगति, तियंचगति ७९९ पर व्याख्यानसार २-३० मे 'पुण्यका चौठा___ तथा नरकगति । णिया रस नही है' अर्थात् चतुर्थस्थानरूप श्रेष्ठ चतुष्पाद-पशु, चार पैरोवाला प्राणी। पुण्य (अत्यन्त तीव्रतम-एकान्त साता) का उदय चयविचय-जाना आना । नही है। चयोपचय-जाना जाना, परन्तु प्रसगवशात् आना जाना, चौदह पूर्व-उत्पादपूर्व, अग्रायणीपूर्व, वीर्यानुवादपूर्व, गमनागमन । आदमीके जाने आनेमें यह लागू नही अस्तिनास्तिप्रवाद, ज्ञानप्रवाद, सत्यप्रवाद, आत्म होता, श्वासोच्छ्वास आदि सूक्ष्मक्रियामें लागू होता है। प्रवाद, कर्मप्रवाद, प्रत्याख्यानपूर्व, विद्यानुवादपूर्व, चरणानुयोग-जिन शास्त्रोमें मुनि तथा श्रावकके कल्याणवादपूर्व, प्राणवादपूर्व, क्रियाविशालपूर्व, माचारका कथन हो । (व्याख्यानसार १-१७३) । त्रिलोकबिन्दुसारपूर्व, ये चौदह पूर्व कहे जाते है । चरमशरीर-अतिम शरीर, कि जिस शरीरसे उसी (गोम्मटसार जीवकाड) भवमें मोक्षप्राप्ति हो । चौदहपूर्वधारी-चौदह पूर्वके ज्ञाता । श्रुतकेवली । चर्मरत्न-चक्रवर्तीका एक रत्न, कि जिसे पानीमे श्रीभद्रबाहस्वामी चौदह पूर्वके ज्ञाता थे। बिछानेसे जमीनकी भांति उस पर गमन किया चौभगी-चार भेदरूप कथन । जाता है, घरकी तरह उस पर रहा जा सकता है। चौविहार-रात्रिमें चार प्रकारके आहारका त्याग । चार आश्रम-ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, सन्यस्त। (१) खाद्य-जिससे पेट भरे, जैसे-रोटी आदि, चार पुरुषार्थ-धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष । (२) स्वाद्य-स्वाद लेनेयोग्य जैसे कि इलायची, चार वर्ग-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र । (३) लेह्य-चाटने योग्य पदार्थ, जैसे-रवडी, चार वेद-ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद । (४) पेय-पीने योग्य, जैसे पानी, दूध इत्यादि । चारित्र-अशुभ कार्योका त्याग करके शुभमें प्रवृत्ति चौवीसदंडक-१ नरक, १० असुरकुमार, १ पृथ्वी करना वह व्यवहार चारित्र है, आत्मस्वरूपमे काय, १ जलकाय, १ अग्निकाय, १ वायुकाय, १ , रमणता और उसीमे स्थिरता यह निश्चयचारित्र है। वनस्पतिकाय, १ तियंच, १ द्वीन्द्रिय, १ तेइन्द्रिय, चार्वाक-नास्तिक मत, जो जीव, पुण्य, पाप, नरक, १ चतुरिन्द्रिय, १ मनुष्य, १ व्यतर, १ ज्योतिषी स्वर्ग, मोक्ष नही हैं ऐसा मानते हैं, दिखाई दे उतना देव, और १ वैमानिकदेव, इस प्रकार २४ दडक है। ही माननेवाले। च्यवन-एक देहको छोडकर अन्य देहमें जाना।

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