Book Title: Shrimad Rajchandra
Author(s): Hansraj Jain
Publisher: Shrimad Rajchandra Ashram

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Page 1038
________________ परिशिष्ट ५ ९०१ 'ज्ञात-विदित, अवगत, जाना हुआ। छट्टछटू-दो उपवास करके पारणा करे, और फिर दो ज्ञातपुत्र-भ० महावीर, ज्ञात नामक क्षत्रिय वशके । __उपवास करे, इस प्रकारके क्रमसे चलना। ज्ञाता-जाननेवाला, आत्मा, प्रथमानुयोगके सूत्रका छद्मस्थ-आवरणसहित जीव, जिसे केवलज्ञान प्रगट नाम । । ____ नही हुआ है। ज्ञान-जिसके द्वारा पदार्थ जाने जायें। आत्माका छह काय-पृथ्वीकाय, जलकाय, अग्निकाय, वायुकाय गुण । ज्ञान आत्माका धर्म है। - और वनस्पतिकाय तथा त्रसकाय । ज्ञानधारा-ज्ञानका प्रवाह । छह खंड-इस भरतक्षेत्रके छह खड हैं, जिनमें १ ज्ञानवृद्ध-जो ज्ञानमें विशेप हैं। आर्यखड और ५ म्लेच्छखड है। ज्ञानाक्षेपकवंत-सम्यग्दृष्टि आत्मा, ज्ञानप्रिय; छह पर्याप्ति-आहार, शरीर, इद्रिय, भाषा, श्वासो- विक्षेपरहित विचार-ज्ञानवाला । देखें आक ३९५ च्छ्वास और मन । (विशेष स्पष्टीकरणके लिये देखें ज्ञेय-जानने योग्य पदार्थ। गोम्मटसार जीवकाड) छंद-अभिप्राय, इच्छा, मनमाना आचरण । तत्त्व- रहस्य, सार, सत्पदार्थ, वस्तु, परमार्थ, यथा वस्थित वस्तु। जघन्यकर्मस्थिति-कर्मकी कमसे कम स्थिति । तत्त्वज्ञान-तत्त्वसम्बन्धी ज्ञान । जड़ता-अज्ञानता, मूर्खता, जडपन । तत्त्वनिष्ठा-तत्त्वोकी श्रद्धा । - जंजालमोहिनी-ससारकी उपाधि । तत्पर-तैयार, उद्यत, सज्ज, एकध्यानरूप । जातिवृद्धता-जातिकी अपेक्षासे श्रेष्ठता , उत्तमता। तदाकार-उसीके आकारका, तन्मय, लीन । जिज्ञासा-तत्त्वको जाननेकी इच्छा । "कषायनी उप- तद्रूप-किसी भी पदार्थमें लीनता। शातता, मात्र मोक्ष अभिलाष भवे खेद अन्तरदया तनय-पुत्र । ते कहिये जिज्ञास" (आत्मसिद्धि दोहा १०८) तप–इन्द्रियदमन, तपस्या, इच्छाका निरोध, तपके जिन-रागद्वेषको जीतनेवाले ।। ____ अनशन आदि बारह भेद है। जिनकल्प-उत्कृष्ट आचार पालनेवाले साधु जिन- तम-अधकार । कल्पीकी व्यवहारविधि, एकाकी विचरनेवाले तमतमप्रभा-सातवां नरक । तमतमा-गाढ अन्धकार वाला सातवा नरक । साधुओंके लिये निश्चित किया हुआ जिनमार्ग या तस्कर-चोर । नियम । (पृष्ठ ७९५ व्याख्यानसार) जिनकल्पी-उत्तम आचार पालनेवाला साधु । ततहारक-वादविवादको नाश करनेवाले । जिनधर्म-जिनभगवानका कहा हुआ धर्म । वीतराग तादात्म्य-एकता, लीनता । तारतम्य-न्यूनाधिकता, एक दूसरेकी तुलनामे कमीद्वारा उपदिष्ट मोक्षका मार्ग । वेशीका विचार । जिनमुद्रा-वीतरागताकी आकृति । जिनमुद्रा दो तिरोभाव-छिपाव, ढंकाव । प्रकारकी है-कायोत्सर्ग और पद्मासन । (देखें पृष्ठ तिर्यकप्रचय-पदार्थके प्रदेशोका सचय; बहुप्रदेशीपन । ७८४ व्याख्यानसार) जिनेन्द्र-तीर्थंकर भगवान । तीर्थ-धर्म, तिरनेका स्थान, शासन, माधु, साध्वी, जीव-आत्मा, जीवपदार्थ । श्रावक, प्राविकारूप मघसमुदाय, गगा, जमुना जीवराशि-जीवोका समुदाय । आदि लोकिक तीर्थ है। जीवास्तिकाय-ज्ञानदर्शनस्वरूप आत्मा । वह आत्मा तीर्थङ्कर-धर्मके उपदेष्टा, गिनरे चार पनपातीकर्म ____ असल्यातप्रदेशी होनेसे अस्तिकाय कहा जाता है। नष्ट हुए है, तथा तीर्थकर नामकमंत्री प्रकृतिका जोगानल-ध्यानरूपी अग्नि । जिन्हे उदय है । पम तीयके स्थापक । दशा

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