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मैं असंग शुद्धचेतन हूँ । . वचनातीत निर्विकल्प
एकांत शुद्ध
... अनुभवस्वरूप हूँ ।
आभ्यंतर परिणाम अवलोकन संस्मरणपोथी २
१७
मैं परम शुद्ध, अखंड चिद्धातु हूँ ।
• अचिधातुके संयोगरसका यह आभास तो देखें !
आश्चर्यवत्, आश्चर्यरूप, घटना है ।
कुछ भी अन्य विकल्पका अवकाश नहीं है । स्थिति भी ऐसी ही है ।
वैसा काल है ? उस विषय में निर्विकल्प हो ।
वैसा क्षेत्रयोग है ?
खोज ।
1. वैसा पराक्रम है ? अप्रमत्त शूरवीर हो । उतना आयुबल है ? क्या लिखना ? क्या कहना ? अंतर्मुख उपयोग करके देख |
१८
परानुग्रहः परमः कारुण्यवृत्तिकी अपेक्षा भी प्रथम चैतन्य जिनप्रतिमा हो । चैतन्य जनप्रतिमा हो ।
ॐ शांतिः शांतिः शांतिः
हे काम ! हे मान ! हे संग उदय !
हे वचनवर्गणा ! हे मोह ! हे मोहदया !
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- [संस्मरण-पोथी २, पृष्ठ ३७ ]
१९
उपय
विशाल
हे शिथिलता ! आप किसलिये अंतराय करते हैं ?
परम अनुग्रह करके अब अनुकूल हो जायें ! अनुकूल हो जायें ।
[ संस्मरण-पोथी २, पृष्ठ ३९]
a
[ संस्मरण-पोथी २, पृष्ठ ४१ ]
२०
[संस्मरण-पोयी २, पृष्ठ ४
हे सर्वोत्कृष्ट सुखके हेतुभूत सम्यग्दर्शन ! तुझे अत्यन्त भक्तिसे नमस्कार हो ! इस अनादि-अनन्त संसारमें अनंत अनंत जीव तेरे आश्रयके विना अनंत अनंत दुःखका
ननुभव
करते हैं ।
तेरे परमानुग्रहसे स्त्रस्वरूपमें रुचि हुई, परम वीतराग स्वभावके प्रति परम निश्चय हुआ, कृतकृत्य होनेका मार्ग ग्रहण हुआ ] |