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श्रीमद् राजचन्द्र
हे जिन वीतराग ! आपको अत्यन्त भक्तिसे नमस्कार करता हूँ । आपने इस पामरपर अनंत अनंत उपकार किया है।
हे कुन्दकुन्द आदि आचार्यों ! आपके वचन भी स्वरूपानुसंधान में इस पामरको परम उपकारभूत हुए हैं । इसके लिये मैं आपको अतिशय भक्तिसे नमस्कार करता हूँ ।
हे श्री सोभाग ! तेरे सत्समागमके अनुग्रहसे आत्मदशाका स्मरण हुआ, उसके लिये तुझे नमस्कार करता हूँ ।
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[ संस्मरण-पोथी २, पृष्ठ ४७]
जैसे भगवान जिनेन्द्र निरूपण किया है वैसे ही सर्व पदार्थका स्वरूप है । भगवान जिनेन्द्रका उपदिष्ट आत्माका समाधिमार्ग श्री गुरुके अनुग्रहसे जानकर, परम प्रयत्नसे उसकी उपासना करें ।
केवल समवस्थित शुद्ध चेतन
उस स्वभावका अनुसंधान वह
मोक्षमार्ग
प्रतीतिरूपमें वह मार्ग जहाँसे शुरू होता है वहाँ सम्यग्दर्शन ।.
२२ 'घविहाण विमुक्कं वंदिन सिरिषद्धमाणजिणचंदं । - सिरिवीर जिणं वंदिन, कम्मविवागं समासओ वुच्छं । कोरई जिएण हेऊह, जेणं तो भण्णए कम्मं ॥ कम्मदववाह सम्मं, संजोगो होई जो उ जीवस्स । सो बंघो नायव्वो, तस्स वियोगो भवे मुक्खो ॥
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मोक्ष
देश आचरणरूप
सर्व आचरणरूप
अप्रमत्तरूपसे उस आचरणमें स्थिति
अपूर्व आत्मजागृति
सत्तागत स्यूल कपाय बलपूर्वक स्वरूपस्थिति
सत्तागत सूक्ष्म
उपशांत क्षोण
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हेतु द्वारा किया जाता है, उस कर्म कहते हैं ।
13.
वह
वह
३. अपके लिये देखें व्याख्यानसार - २ का आंक ३० ।
[संस्मरण-पोथी २, पृष्ठ ४९]
वह
वह
वह
[ संस्मरण-पोथी २, पृष्ठ ५१]
पंचम गुणस्थानक ।
षष्ठ गुणस्थानक ।
सप्तम
अष्टम
नवमः
दशम
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एकादशम द्वादशम
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१. यह सम्पूर्ण गाया इस प्रकार है- बंघविहाण विमुक्कं वंदिअ सिरिवद्धमाणजिणचंदं । गई आईसुं वुच्छं, समासत्र बंधसामित्तं । अर्थात् कर्मबंधकी रचनासे रहित श्री वर्धमान जिनको नमस्कार करके गति और चौदह मागंणाओं द्वारा संक्षेपसे बंधस्वामित्वको कहूंगा ।
२. भावार्य — श्री वीर जिनको नमस्कार करके संक्षेपसे कर्मविपाक नामक ग्रन्थको कहूँगा । जो जीवसे किसी
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