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श्रीमद राजचन्द्र
हे व्यवहारोदय ! अव प्रबलतासे उदयं आकर भी तू शांत हो, शांत ।
दीर्घसूत्रता ! सुविचारका, धैर्यका, गंभीरता का परिणाम तू क्यों होना चाहती है ?
हे बोधबीज ! तू अत्यंत हस्तामलकवत् वर्तन कर, वर्तन कर । ज्ञान ! तू दुर्गमको भी अब सुगम स्वभावमें ला दे ।
हे चारित्र ! परम अनुग्रह कर, परम अनुग्रह कर । हे योग ! आप स्थिर होवें; स्थिर होवें ।
ध्यान ! तू निजस्वभावाकार हो, निजस्वभावाकार हो । व्यग्रता ! तू चली जा, चली जा ।
[ संस्मरण-पोथी ३, पृष्ठ ५९ ]
हे अल्प या मध्य अल्प कषाय ! अब आप उपशांत होवें, क्षीण होवें । हमें आपके प्रति कोई रुचि
नहीं रही ।
हे सर्वज्ञपद ! यथार्थं सुप्रतीतरूपसे तू हृदयावेश कर, हृदयावेश कर ।
हे असंग निर्ग्रथपद ! तू स्वाभाविक व्यवहाररूप हो ।
हे परम करुणामय सर्व परमहितके मूल वीतरागधर्म ! प्रसन्न हो, प्रसन्न हो ।
हे आत्मन् ! तू निजस्वभावाकार वृत्तिमें ही अभिमुख हो ! अभिमुख हो । ॐ
[ संस्मरण-पोथी ३, पृष्ठ ६१ ] हे वचनसमिति ! हे काय - अचपलता ! हे एकांतवास और असंगता ! आप भी प्रसन्न होवें, प्रसन्न हो ।
खलबली करती हुई जो आभ्यंतर वर्गणा है उसका या तो आभ्यंतर ही वेदन कर लेना, या तो उसे स्वच्छपुट देकर उपशांत कर देना ।
जैसे निःस्पृहता बलवान, वैसे ध्यान बलवान हो सकता है, कार्यं बलवान हो सकता हैं ।
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[ संस्मरण-पोथी ३, पृष्ठ ६३ ]
'इणमेव निग्गंथं पावयणं सच्चं अणुत्तरं केवलियं पडिवुर्णसंसुद्धं णेयाउयं सल्लकत्तणं सिद्धिमग्गं मुत्तिमग्गं विज्जाणमग्गं निव्वाणमग्गं अवितहमसंदिट्ठ सम्वदुक्खप्प होणसग्गं एत्थं ठिया जीवा सिज्यंति बुज्झति मुच्चति परिणिन्वायंति सव्वदुक्खाणमंतं करंति । तहा तंमाणाए तहा गच्छामो तहा चिट्ठामो तहा णिसियामो तहा सुट्ठामो तहा भुंजामो तहा भासामो तहा अब्भुट्ठामो तहा उडाए उट्टे मोति पाणाणं भूयाणं जीवाणं सत्ताणं संजमेणं संजमामोत्ति ।
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शरीरसंबंधी दूसरी बार आज अप्राकृत क्रम शुरू हुआ । ज्ञानियोंका सनातन सन्मार्ग जयवंत रहे !
फागुन वदी १३, सोम, सं० १९५७
१. भावार्थ - यह ही निर्ग्रथ-प्रवचन सत्य अनुत्तर - श्रेष्ठ, सर्वज्ञका, प्रतिपूर्ण संशुद्ध - सर्वथा संशुद्ध, न्याययुक्त, शल्यको काटनेवाला, सिद्धिमार्ग, मुक्तिमार्ग, विज्ञानमार्ग, निर्वाणमार्ग, अवितथ - सत्य, असंदिग्ध और सर्व दुःख नाशक है । इस मार्ग में स्थित हुए जीव सिद्ध होते हैं, बुद्ध होते हैं, मुक्त होते हैं, परिनिर्वाणको प्राप्त होते हैं और सर्व दुःखोंका अन्त करते हैं। उसकी आज्ञासे उस प्रकारसे चलें, रहें, बैठें, करवट बदलें, खायें, वोलें, गुरु यादिके सामने खड़े होवें और उहें कि प्राणभूत जीवसत्त्वोंकी हिसा न हो। ऐसे संयमका आचरण हो ।