Book Title: Shrimad Rajchandra
Author(s): Hansraj Jain
Publisher: Shrimad Rajchandra Ashram

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Page 991
________________ ८५४ अवतरण श्रीमद राजचन्द्र करना फकीरी क्या दिलगीरी सदा मगन मन रहेनाजी । कर्ता मटे तो छूटे कर्म, ए छे महा भजननो मर्म, जोतुं जीव तो कर्ता हरि, जो तुं शिव तो वस्तु खरी, तुं छो जीव ने तुं छो नाथ, एम कही अखे झटक्या हाथ ॥ [ अखाजी, अक्षय भगत कवि ] [स्वरोदयज्ञान- चिदानंदजी ] काल ज्ञानादिक थकी, लही आगम अनुमान । गुरु करुना करी कहत हूँ, शुचि स्वरोदयज्ञान ॥ किं बहुणा इह जह जह, रागद्दोसा लहुं विलिज्जंति । तह तह पर्याट्ठअव्वं, एसा आणा जिणिदाणम् ॥ कोचसो कनक जाकै, नीचसौ नरेसपद, मोचसी मिताई, गरुवाई जाकै गारसी । जहरसी जोग जाति, कहरसी करामाति; हहरसी हौस, पुद्गल छवि छारसी । जालसी जगविलास, भालसो भुवनवास; कालसी कुटुम्बकाज, लोकलाज लारसी । सीठसौ सुजसु जाने, वीठसौ वखत मानै; ऐसी जाकी रीति ताहि, वंदत बनारसी ॥ गुरुण छंदाणुवत्ता गुरु गणवर गुणवर अधिक प्रचुर परंपर ओर । व्रत तपवर तनु नगनंतर बंदी वृप सिरमौर ॥ स्थल [कवीरजी ] घट घट अंतर जिन वसे, घट घट अंतर जैन मत मदिराके पानसें मतवारा समजै न । [समयसार - नाटक वंधद्वार १९ पृ० २३४ - ५ ] [ सूत्रकृतांग प्रथम श्रुतस्कंध द्वितीय अध्ययन उद्देश २, गाथा ३२ ] [उपदेश रहस्य, यशोविजयजी ] [ स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षा पं० जयचंद्रकृत अनुवादका मंगलाचरण ] चलई सो बंधे चाहे चकोर ते चंदने, मधुकर मालती भोगी रे | तिम नवि महन गुणे होवे, उत्तम निमित्त संजोगी रे ॥ [समयसार - नाटक, ग्रंथ समाप्ति और अंतिम प्रशस्ति ] चरमावतं हो चरम करण तथा रे, भव परिणति परिपाक । दोप टळे वळी दृष्टि खुले भली रे, प्रापति प्रवचन वाक ॥१॥ परिचय पातिक धातिक साधुशुं रे, अकुशल अपचय चेत । ग्रंथ अध्यातम श्रवण, मनन करी रे, परिशीलन नयहेत ॥ २ ॥ मुगध सुगम करो सेवन लेखवे रे, सेवन अगम अनुप । देजो कदाचित् सेवक याचना रे, आनंदधन रसरूप ॥३॥ [आनंदघन चोवीशी संभवजिन स्तवन ] [?] [आठ योगदृष्टिकी सज्झाय, प्रथमदृष्टि -गा. १३ यशोविजयजी ] पृष्ठ - पंक्ति २६१-३२ ३०८-४ १६२-३४ ३६५-१४ ६१५-२१ ५३९-१७ ६५२-२२; ७९४-३१ ७७९-१३ ६४२-११; ६७४-६ ७८७-३ ६७४-४

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