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" एकांतवास ।
HENRINT I सर्वज्ञध्यान
आत्मा ।
आत्मोपयोग ।
arriतर परिणाम अवलोकन संस्मरणपोयी २
मूल आत्मोपयोग ।
अप्रमत्त उपयोग |
केवल उपयोग |
केवल आत्मा ।
अचित्य सिद्धस्वरूप |
धर्मसुगमता । लोकानुग्रह |
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जिनचैतन्यप्रतिमा । सर्वांगसंयम ।
एकांत स्थिर संयम् ।
एकांत शुद्ध संयम । केवल बाह्यभाव निरपेक्षता ।
आत्मतत्त्वविचार | जगततत्त्वविचार | जिनदर्शनतत्त्वविचार । अन्य दर्शनतत्त्वविचार ।
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यथास्थित शुद्ध सनातन सर्वोत्कृष्ट जयवंत धर्मका उदय
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[संस्मरण-पोथी २, पृष्ठ ३१]
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* इस योजनाका उद्देश्य यह मालूम होता है कि 'एकांत स्थिर संयमः', 'एकांत शुद्ध संयम' और 'केवल बाह्यभाव निरपेक्षता' पूर्वक 'सर्वाङ्गसंयम' प्राप्तकर, उसके द्वारा 'जिनचैतन्यप्रतिमारूप' होकर, अर्थात् अडोल आत्मावस्था पाकर जगतके जीवोंके कल्याणके लिये अर्थात् मार्ग के पुनरुद्धार के लिये प्रवृत्ति करनी चाहिये । यहाँ जो 'वृत्ति, ' ' पद्धति' और 'समाधान' शब्द आये हैं, सो उनमें 'वृत्ति क्या है ?" इसके उत्तरमें कहा गया है कि 'यथास्थित शुद्ध सनातन सर्वोत्कृष्ट जयवंत धर्मका उदय करना? यह वृत्ति हैं । उसे 'किस पद्धतिसे करना चाहिये ?" इसके उत्तरमें कहा गया है कि जिससे लोगोंको 'धर्मसुगमता हो और लोकानुग्रह भी हो।' इसके बाद 'इस वृत्ति और पद्धतिका परिणाम क्या होगा ?" इसके समाधानमें कहा गया है कि 'आत्मतत्त्व-विचार, जगततत्त्व-विचार, जिनदर्शन तत्त्व-विचार और अन्य दर्शनतत्त्व-विचारके संबंमें संसारके जीवोंका समाधान करना ।'
इसी संस्मरण-पोथीके आंक १८ में कहा गया है कि "परानुग्रह परम कारुण्यवृत्तिकी अपेक्षा भी प्रथम चैतन्य जिनप्रतिमा हो । चैतन्य जिनप्रतिमा हो ।" : - इस वाक्यसे भी यह बात अधिक स्पष्ट होती है ।
यहाँ यह स्पष्टीकरण श्रीमद् राजचंद्रकी गुजराती आवृत्तिके संशोधक श्री मनसुखभाई रवजीभाई मेहता नोट के आधार से लिखा गया है ।
[श्री परमश्रुतप्रभावक मंडल, बम्बई द्वारा प्रकाशित 'श्रीमद् राजचन्द्र' ( हिन्दी ) के पृष्ठ ७२९ के फुटनोट
से उद्घृत ।]