________________
आभ्यंतर परिणाम अवलोकन-संस्मरणपोथी २ ....... - :: :.:..: : १७ .. ..... [संस्मरण-पोथी २, पृष्ठ ३७]
मैं असंग शुद्धचेतन हूँ। ... वचनातीत निर्विकल्प... :: ..... ... ... .. ... ... ......
एकांत शुद्ध ..:: अनुभवस्वरूप हूँ। ................. "..."
मैं परम शुद्ध, अखंड चिद्धातु हूँ। अचिद्धातुके संयोगरसका यह आभास तो देखें ! आश्चर्यवत्, आश्चर्यरूप, घटना है। ....
कछ भा अन्य विकल्पका अवकाश नहा हा .... .. ... ... .......... .....स्थिति भी ऐसी ही है।
१८ . . [संस्मरण-पोथी २, पृष्ठ ३९] परानुग्रह परम कारुण्यवृत्तिकी अपेक्षा भी प्रथम चैतन्य जिनप्रतिमा हो ।
....... . चैतन्य जिनप्रतिमा. हो । .... । वैसा काल है ? . ... ... ... ... .. . उस विषयमें निर्विकल्प हो। ... ... ... ... ...... : वैसा क्षेत्रयोग है? . .... .. .....
खोज। :::: वैसा पराक्रम है ?
अप्रमत्त शूरवीर हो। उतना आयुबल है ? क्या लिखना ? क्या कहना? अंतर्मुख उपयोग करके देख । . . ........ ........ ........
ॐ शांतिः शांतिः शांतिः ।
....... [संस्मरण-पोथी २, पृष्ठ ४१]
हे काम ! हे मान ! हे संग-उदय ! हे वचनवर्गणा! हे मोह ! हे मोहदया ! ....... ... ... ..... हे शिथिलता ! आप किसलिये अंतराय करते हैं ? . परम अनुग्रह करके अब अनुकूल हो जायें ! अनुकूल हो जायें।.
...... ... ... ... .... २० . . . . . . . . [संस्मरण-पोथी २, पृष्ठ ४ -५१ हे सर्वोत्कृष्ट सुखके हेतुभूत सम्यग्दर्शन ! तुझे अत्यन्त भक्तिसे नमस्कार हो!
इस अनादि-अनन्त संसारमें अनंत-अनंत जीव तेरे आश्रयके विना अनंत-अनंत दुःखका : करते हैं।
LIGuमें रुचि हई, परम वीतराग स्वभावके प्रति परम निश्चय हुआ होनेका मार्ग ग्रहण हुआ]|