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८३८ ..... श्रीमद राजचन्द्र, ...
[संस्मरण-पोथी २, पृष्ठ ३२] स्वपर परमोपकारक परमार्थमय सत्यधर्म जयवंत रहे । आश्चर्यकारक भेद पड़ गये हैं। खंडित है। . . संपूर्ण करनेका साधन दुर्गम दिखायी देता है । उस प्रभावमें महान अन्तराय है। देश, काल आदि बहुत प्रतिकूल हैं। वीतरागोंका मत लोकप्रतिकूल हो गया है।
रूढिसे जो लोग उसे मानते हैं उनके ध्यानमें भी वह सुप्रतीत मालूम नहीं होता । अथवा अन्यमतको वीतरागोंका मत समझ कर प्रवृत्ति करते रहते हैं।
वीतरागोंके मतको यथार्थ समझनेकी उनमें योग्यताको बहुत कमी है। दृष्टिरागका प्रवल राज्य चलता है। वेषादि व्यवहारमें बड़ी विडंबना कर मोक्षमार्गको अंतराय कर बैठे है। विराधकवृत्तिवाले तुच्छ पामर पुरुष अग्रभागमें रहते हैं ।। किंचित् सत्य बाहर आते हुए भी उन्हें प्राणघाततुल्य दुःख लगता हो ऐसा दिखायी देता है।
१५ । ...... . [संस्मरण-पोथी २, पृष्ठ ३४] तव आप किसलिये उस धर्मका उद्धार चाहते हैं ?....... परम कारुण्य-स्वभावसे । - उस सद्धर्मके प्रति परमभक्तिसे।
संस्मरण-पोथी २, पृष्ठ ३५] . एवंभूत-दृष्टिसे ऋजुसूत्र स्थिति कर।
ऋजुसूत्र-दृष्टिसे एवंभूत स्थिति कर। . ......
नैगम-दृष्टिसे एवंभूत प्राप्ति कर। _... एवंभूत-दष्टिसे नैगम विशुद्ध कर। संग्रह दृष्टिसे एवंभूत हो। ..
... . .. एवंभूत-दृष्टिसे संग्रह विशुद्ध कर।....
. .. ... ... ... ........ व्यवहार-दृष्टिसे: एवंभूतके प्रति जा.!' ...
... .. एवंभूत-दृष्टिसे व्यवहारः विनिवृत्त कर
....... . शब्द-दृष्टिसे एवंभूतके प्रति जा।::. ........... ...
. ..... एवंभत-दष्टिसे शब्द निर्विकल्प कर
, . . .
: -- समाभरूढ-दृष्टिस एवभूत अवलोकन कर . ... ... .............
एवंभूत-दृष्टिसे समभिरूढ स्थिति कर: -". .. ... .. .... .... एवंभूत-दृष्टिसे एवंभूत हो। . ........ ............
एवंभूत-स्थितिसे एवंभूत-दृष्टि शांत कर।। ......
...... . ॐ शांतिः शांतिः शांतिः : ... ...
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