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श्रीमद् राजचन्द्र ... ... ३४. देहांतदर्शनका सुगम मार्ग-वर्तमानकालमें । ३५. सिद्धत्वपर्याय सादि-अनंत, और मोक्ष अनादि-अनंत । ३६. परिणामी पदार्थ, निरंतर स्वाकारपरिणामी हो तो भी अव्यवस्थित परिणामित्व अनादिसे हो, वह केवलज्ञानमें भासमान पदार्थमें किस तरह घटमान ?
[संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ १८० १. कर्मव्यवस्था। २. सर्वज्ञता। ३. पारिणामिकता। ४. नाना प्रकारके विचार और समाधान । ५. अन्यसे न्यून पराभवता। ६. जहाँ जहाँ अन्य विकल है वहाँ वहाँ अविकल यह, जहाँ विकल दिखायो दे वहाँ.अन्यकी क्वचित् अविकलता-नहीं तो नहीं ।
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. : [संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ १८१] मोहमयी-क्षेत्रसंबंधी उपाधिका परित्याग करनेमें आठ महीने और दस दिन बाकी है, और यह परित्याग हो सकने योग्य है।
दूसरे क्षेत्रमें उपाधि (व्यापार) करनेके अभिप्रायसे मोहमयी क्षेत्रको उपाधिका त्याग करनेका विचार रहता है, ऐसा नहीं है। . . .. .. .. ... ... ... ... ........ ....
परन्तु जब तक सर्वसंगपरित्यागरूप योग निरावरण न हो तब तक जो गृहाश्रम रहे उस गृहाश्रममें काल व्यतीत करनेका विचार कर्तव्य है । क्षेत्रका विचार कर्तव्य है । जिस व्यवहारमें रहना उस व्यवहारका विचार कर्तव्य है; क्योंकि पूर्वापर अविरोधता नहीं तो रहना कठिन है। . . .
[संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ १८२] भू :
ब्रह्म स्थापना :- - ध्यान मुख :योगबल
, . ब्रह्मग्रहण
निग्रंथ आदि संप्रदाय ध्यान।
निरूपण। योगवल।
::... भू, स्थापना. मख ...: .....
.... .....: . - . .; स्वायु-स्थिति। आत्मवल।
... ... ८६ : ... .. [संस्मरण-पोथी. १, पृष्ठ १८३]. सो धम्मो जत्थ दया दसट्ठ दोसा न जस्स सो देवो। . . सो हु गुरू जो नाणी आरंभपरिग्गहा विरओ॥ ... ... ... ..
१. भावार्थ-जहां दया है वहाँ धर्म है, जिसके अठारह दोष नहीं वह देव है, तथा जो ज्ञानी और आरंभपरिग्रहसे विरत है वह गुरु है ।