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श्रीमद् राजचन्द्र आचायोंके विचारमें यदि किसी जगह कुछ भेद देखनेमें आये तो वह क्षयोपशमके कारण संभव है, परन्तु वस्तुतः उसमें विकल्प करना योग्य नहीं है।
२८. ज्ञानी बहुत चतुर थे। वे विषयसुख भोगना जानते थे, उनको पांचों इन्द्रियाँ पूर्ण थी, (जिसकी पाँचों इंद्रियाँ पूर्ण होती है वही आचार्यपदवीके योग्य होता है ।) फिर भी यह संसार (इंद्रियसुख) निःसार लगनेसे तथा आत्माके सनातन धर्ममें श्रेय मालूम होनेसे वे विषयसुखसे विरत होकर आत्माके सनातन धर्ममें संलग्न हुए हैं।
२९. अनंतकालसे जीव भटकता है, फिर भी उसका मोक्ष नहीं हुआ। जव कि ज्ञानीने एक अंत. महुर्तमें मोक्ष बताया है !
३०. जीव ज्ञानीकी आज्ञाके अनुसार शांतिमें रहे तो अंतर्महूर्तमें मुक्त होता है। ... • ३१. अमुक वस्तुओंका व्यवच्छेद हो गया है, ऐसा कहा जाता है; परन्तु उनके लिये पुरुषार्थ नहीं किया जाता, इसलिये उनके व्यवच्छेदकी वात कही जाती है। यदि उनके लिये सच्चा-जैसा चाहिये वैसापुरुषार्थ हो तो वे गुण प्रगट होते हैं इसमें संशय नहीं है । अंग्रेजोंने उद्यम किया तो हुनर और राज्य प्राप्त किये; और हिन्दुस्तानियोंने उद्यम नहीं किया तो प्राप्त नहीं कर सके, इसलिये विद्या (ज्ञान) का व्यवच्छेद हुआ ऐसा नहीं कहा जा सकता। :
३२. विषय क्षीण नहीं हुए, फिर भी जो जीव अपने में वर्तमानमें गुण मान बैठे हैं, उन जीवों जैसी भ्रांति न करते हुए उन विषयोंका क्षय करनेकी ओर ध्यान दें।
५.. ... मोरवी, आषाढ़ सुदी ८, गुरु, १९५६ ... १. धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चार पुरुषार्थों में मोक्ष प्रथम तीनसे बढ़कर है, मोक्षके लिये वाकी तीन हैं।
२. सुखरूप आत्माका धर्म है, ऐसा प्रतीत होता है । वह सोनेकी तरह शुद्ध है।
३. कर्मसे सुखदु:ख सहन करते हुए भी परिग्रहके उपार्जन तथा उसके रक्षणके लिये सब प्रयत्न करते हैं । सब सुखको चाहते हैं, परन्तु वे परतंत्र है। परतंत्रता प्रशंसापात्र नहीं है, वह दुर्गतिका हेतु है । अतः सच्चे सुखके इच्छुकके लिये मोक्षमार्गका वर्णन किया गया है।
४. वह मार्ग (मोक्ष) रत्नत्रयको आराधनासे सब कर्मोंका क्षय होनेसे प्राप्त होता है । ५. ज्ञानी द्वारा निरूपित तत्त्वोंका यथार्थ बोध होना 'सम्यग्ज्ञान' है। . .
६. जीव, अजीव, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्ष ये तत्त्व हैं। यहाँ पुण्य-पाप आस्रवमें गिने हैं।
७. जीवके दो भेद-सिद्ध और संसारी। .. सिद्ध : अनंत ज्ञान, दर्शन, वोर्य, सुख, ये सिद्धके स्वभाव समान हैं फिर भी अनंतर परंपरा होनेरूप पन्द्रह भेद इस प्रकार कहे हैं-(१) तीर्थ, (२) अतीर्थ, (३) तीर्थंकर, (४) अतीर्थंकर, (५) स्वयंबुद्ध; (६) प्रत्येक वुद्ध, (७) बुद्धबोधित, (८) स्त्रीलिंग, (९ पुरुपलिंग, (१०) नपुंसकलिंग, (११) अन्यलिंग (१२) जैनलिंग, (१३) गृहस्थलिंग, (१४) एक, (१५) अनेक ।
संसारी :-संसारी जीव एक प्रकारसे, दो प्रकारसे इत्यादि अनेक प्रकारसे कहे हैं। एक प्रकार :-सामान्यरूपसे 'उपयोग' लक्षणवाले सर्व संसारी जोव हैं।
दो प्रकार :-वस, स्थावर अथवा व्यवहारराशि, अव्यवहारराशि । सूक्ष्म निगोदमेंसे निकलकर एक बार सपर्यायको प्राप्त किया है, वह 'व्यवहारराशि' ।