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व्याख्यानसार-२.
७८५ २. मोक्षमार्ग अगम्य तथा सरल है।
. . . . . . . . ___ अगम्य-मात्र विभावदशाके कारण मतभेद पड़ जानेसे किसी भी जगह मोक्षमार्ग समझमें आ सके ऐसा नहीं रहा, और इस कारण वर्तमानमें वह अगम्य है। मनुष्यके मर जानेके बाद अज्ञानसें नाड़ी पकड़कर इलाज करनेके फलके समान मतभेद पड़नेका फल हुआ है, और इससे मोक्षमार्ग. समझमें नहीं आता.।
..सरल-मतभेदकी माथापच्ची दूर कर, आत्मा और पुद्गलका भेद करके शांतिसे आत्माका अनुभव किया जाये तो मोक्षमार्ग सरल है; और दूर नहीं है। जैसे कि एक ग्रन्थको पढ़ने में कितना ही समय जाता है और उसे समझनेमें अधिक समय जाना चाहिये; वैसे अनेक. शास्त्र हैं, उन्हें एक एक करके पढ़नेके बाद उनका निर्णय करनेके लिये बैठा जाये, तो उस हिसाबसे पूर्व आदिका ज्ञान और केवलज्ञान किसी भी उपायसे प्राप्त नहीं हो सकता अर्थात् इस तरह पढ़नेमें आते हों तो कभी पार नहीं आ सकता; परन्तु उसकी संकलना है, और उसे श्री गुरुदेव बताते हैं कि महात्मा उसे अंतर्मुहूर्तमें प्राप्त करते हैं ।
३. इस जीवने नवपूर्व तक ज्ञान प्राप्त किया तो भी कुछ सिद्धि नहीं हुई, उसका कारण विमुखदशासे परिणमन होना है। यदि सन्मुखदशासे परिणमन हो तो तत्क्षण मुक्त हो जाता है।
४. परमशांत रसमय 'भगवती आराधना' जैसे एक ही शास्त्रका अच्छी तरह परिणमन हुआ हो तो बस है। क्योंकि इस आरे-कालमें वह सहज है, सरल है।
: ५. इस आरे-कालमें संहनन अच्छे नहीं है, आयु कम है, दुर्भिक्ष और महामारी जैसे संयोग वारंवार आते हैं, इसलिये आयुकी कोई निश्चयपूर्वक स्थिति नहीं है, इसलिये यथासंभव आत्महितकी बात तुरत ही करे। उसे स्थगित कर देनेसे जीव धोखा खा वैठता है। ऐसे अल्प समयमें तो नितांत सम्यकमार्ग जो परमशांत होनेरूप है, उसे ग्रहण करे । उसीसे उपशम, क्षयोपशम और क्षायिक भाव होते हैं।
६. काम आदि कभी ही हमसे हार मानते हैं, नहीं तो कई बार हमें थप्पड़ मार देते हैं । इसलिये भरसक यथासंभव जल्दी ही उन्हें छोड़नेके लिये अप्रमादी बनें। जैसे शीघ्र हुआ जाये वैसे होना । शूरवीरतासें वैसा तुरत हुआ जा सकता है।
७. वर्तमानमें दृष्टिरागानुसारी मनुष्य विशेषरूपसे हैं ।
८. यदि सच्चे वैद्यकी प्राप्ति हो जाये तो देहका विधर्म सहज ही औषधि द्वारा विधर्ममेंसे निकलकर स्वधर्म पकड़ लेता है। इसी तरह यदि सच्चे गुरुकी प्राप्ति हो जाये तो आत्माकी शांति बहुत ही सुगमतासे और सहजमें हो जाती है। इसलिये वैसी क्रिया करनेमें स्वयं तत्पर अर्थात् अप्रमादी होवें। प्रमादसे उलटे कायर न होवें। .. ... ९. सामायिक = संयम ।
१०. प्रतिक्रमण = आत्माको क्षमापना, आराधना । ११. पूजा- भक्ति । .. - १२. जिनपूजा, सामायिक, प्रतिक्रमण आदि किस अनुक्रमसे करना, यह कहते हुए एकके बाद एक प्रश्न उठता है, और उसका किसी तरह अंत आनेवाला नहीं है। परंतु यदि ज्ञानीको आज्ञासे यह जीव चाहे जैसे (ज्ञानीके कहे अनुसार) चले तो भी वह मोक्षमार्ग में है। .. १३. हमारी आज्ञासे चलनेपर यदि पाप लगे तो उसे हम अपने सिरपर ले लेते हैं। क्योंकि जैसे कि रास्तेमें काँटे पड़े हों तो, वे किसीको लगेंगे, ऐसा जानकर मार्गमें चलता हुआ कोई व्यक्ति उन्हें वहांसे उठाकर, किसी ऐसी एकांत जगहमें रख दे कि जहां वे किसीको न लगे, तो उसने कुछ राज्यका अपराध