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श्रीमद राजचन्द्र
. . . . . . . . . २० . . मोरबी, आषाढ वदी ७, बुध, १९५६ . १. आराधना होनेके लिये सारा श्रुतज्ञान है, और उस आराधनाका वर्णन करनेके लिये श्रुतकेवली भी अशक्त है। . ..
.. .... .. .. . . २. ज्ञान, लब्धि, ध्यान और समस्त आराधनाका प्रकार भी ऐसा ही है । - ३. गुणकी अतिशयता ही पूज्य है, और उसके अधीन लब्धि, सिद्धि इत्यादि हैं, और चारित्र स्वच्छ करना यह उसकी विधि है। ४. दशवैकालिककी पहली गाथा
'धम्मो मंगल मुक्किद्वं, अहिंसा संजमो तवो। ... देवा. वि तं नमसंति, जस्स धम्मे सया मणो॥ इसमें सारी विधि समा जाती है। परंतु अमुक विधि ऐसे कहनेमें नहीं आयी, इससे यों समझमें आता है कि स्पष्टतासे विधि नहीं बतायी।
५. (आत्माके) गुणातिशयमें ही चमत्कार है।
६. सर्वोत्कृष्ट शांत स्वभाव करनेसे परस्पर वैरवाले प्राणी अपना वैरभाव छोड़कर शांत हो जाते हैं, ऐसा श्री तीर्थंकरका अतिशय है।
७. जो कुछ सिद्धि, लब्धि इत्यादि हैं वे आत्माके जागृतभावमें अर्थात् आत्माके अप्रमत्त स्वभावमें हैं । वे सब शक्तियाँ आत्माके अधीन हैं। आत्माके विना कुछ नहीं है । इन सबका मूल सम्यक्ज्ञान, दर्शन और चारित्र है।
८. अत्यन्त लेश्याशुद्धि होनेके कारण परमाणु भी शुद्ध होते हैं, इसे सात्त्विक वृक्षके नीचे बैठनेसे प्रतीत होनेवाले असरके दृष्टान्तसे समझे। ..
९. लब्धि, सिद्धि सच्ची हैं, और वे निरपेक्ष महात्माको प्राप्त होती है; जोगी, वैरागी ऐसे मिथ्यात्वीको प्राप्त नहीं होती। उसमें भी अनंत प्रकार होनेसे सहज अपवाद है। ऐसी शक्तिवाले महात्मा प्रकाशमें नहीं आते, और शक्ति बताते भी नहीं । जो कहता है उसके पास वैसा नहीं होता।
१०. लब्धि क्षोभकारी और चारित्रको शिथिल करनेवाली है। लब्धि आदि मार्गसे पतित होनेके कारण हैं। इसलिये ज्ञानो उनका तिरस्कार करते हैं। ज्ञानीको जहाँ लब्धि, सिद्धि आदिसे पतित होनेका सम्भव होता है वहाँ वे अपनेसे विशेष ज्ञानीका आश्रय खोजते हैं।
११. आत्माकी योग्यताके बिना यह शक्ति नहीं आती । आत्मा अपना अधिकार बढ़ाये तो वह आती है।
१२. देहका छूटना पर्यायका छूटना है; परन्तु आत्मा आत्माकारसे अखंड अवस्थित रहता है, उसका अपना कुछ नहीं जाता। जो जाता है वह अपना नहीं, ऐसा प्रत्यक्षज्ञान जब तक नहीं होता तब तक मृत्युका भय लगता है। ... . १३. . २"गुरु गणधर. गुणधर अधिक (सकल) प्रचुर परंपर और। ___ व्रततपधर, तनु नगनतर, वंदौ वृष सिरमौर ॥"
-स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षा टीका, दोहा ३ १. भावार्थ-धर्म, अहिंसा, संयम और तप ही उत्कृष्ट मंगल है। जिसका धर्ममें निरंतर मन है, उसे देव भी नमस्कार करते हैं।
२. अर्थके लिये देखें आंक ९०१ ।