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आभ्यंतर परिणाम अवलोकन-संस्मरण पोथी १
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[संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ २] जीवकी व्यापकता, परिणामिता, कर्मसम्बद्धता, मोक्षक्षेत्र ये किस किस प्रकारसे घटित हो सकते है, इसका विचार किये बिना तथारूप समाधि नहीं होती । गुणं और गुणीका भेद किस तरह समझमें आना योग्य है ?
जीवकी व्यापकता, सामान्यविशेषात्मकता, परिणामिता, लोकालोकज्ञायकता, कर्मसम्बद्धता मोक्षक्षेत्र, ये पूर्वापर अविरोधसे किस तरह सिद्ध होते हैं ? ' . .
एक ही जीव नामके पदार्थको भिन्न भिन्न दर्शन, सम्प्रदाय और मत भिन्न भिन्न स्वरूपसे कहते हैं, उसका कर्मसंबंध और मोक्ष भी भिन्न भिन्न स्वरूपसे कहते है, 'इसलिये निर्णय करना दुष्कर क्यों
नहीं है ?
..........: [संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ ३]
: सहज जो पुरुष इस ग्रन्थमें सहज नोंध करता है, उस पुरुषके लिये प्रथम सहज वही पुरुष लिखता है।
उसको अभी अन्तरंगमें ऐसी दशा रहती है कि कुछके सिवाय उसने सभी संसारी इच्छाओंकी भी विस्मृति कर डाली है।
वह कुछ पा भी चुका है, और पूर्णका परम मुमुक्षु है, अन्तिम मार्गका निःशंक जिज्ञासु है ।
अभी जो आवरण उसके उदयमें आये हैं, उन आवरणोंसें उसे खेद नहीं है; परन्तु वस्तुभावमें होनेवाली मन्दताका खेद है।
. . वह धर्मकी विधि, अर्थकी विधि, कामकी विधि और उसके आधारसे. मोक्षको विधिको प्रकाशित कर सकता है । इस कालमें बहुत ही थोड़े पुरुषोंको प्राप्त हुआ होगा, ऐसे क्षयोपशमवाला पुरुष है।
उसे अपनी स्मृतिके लिये गर्व नहीं है, तर्कके लिये गर्व नहीं है, तथा उसके लिये पक्षपात भी नहीं है; ऐसा होनेपर भी उसे कुछ बाह्याचार रखना पड़ता है, उसके लिये खेद है।
उसका अब एक विषयको छोड़कर दूसरे विषयमें ठिकाना नहीं हैं। वह पुरुष यद्यपि तीक्ष्ण उपयोगवाला है, तथापि उस तीक्ष्ण उपयोगको दूसरे किसी भी विषयमें लगानेके लिये वह प्रीति नहीं रखता।
. .. [संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ:४]
अभ्याससे जैसा चाहिये वैसा समझमें नहीं आता, तथापि किसी भी अंशमें देहसे आत्मा भिन्न है ऐसे अनिर्धारित निर्णय पर आया जा सकता है। और उसके लिये वारंवार गवेषणा को जाये तो अब तक जो प्रतीति होती है उससे विशेषरूपसे हो सकना सम्भव है; क्योंकि ज्यों ज्यों विचारश्रेणिकी दृढता होती जाती है त्यों त्यों विशेष प्रीति होती जाती है।
सभी संयोगों और सम्बन्धोंका यथाशक्ति विचार करनेसे यह तो प्रतीति होती है कि देहसे भिन्न ऐसा कोई पदार्थ है।
. ऐसे विचार करनेके लिये एकांत आदि जो साधन चाहिये वे प्राप्त न करनेसे विचार-श्रेणीको किसी न किसी प्रकारसे वारंवार व्याघात होता है और उससे चलती हुई विचारथेणी टूट जाती है । ऐसी टूटी-फूटी विचारणी होते हए भी क्षयोपशमके अनसार विचार करते हुए जड-पदार्थ (शरीर आदि) के सिवाय उसके संबंध कोई भी वस्तु है, अवश्य है ऐसी प्रताति हो जाती है। आवरणके बलते अथवा तो अनादिकालके देहात्मबुद्धि अध्यासले यह निर्णय भुला दिया जाता है, और भूलवाले रास्तेपर गमन हो जाता है। .