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आभ्यंतर परिणाम अवलोकन
संस्मरण-पोथी
२२ वैसे ३४वें वर्ष पर्यन्त
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संस्मरण-पोथी १
[ संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ १]
• प्रत्येक प्रत्येक पदार्थका अत्यंत विवेक करके इस जीवको उससे व्यावृत्त करें, ऐसा निग्रंथ कहते हैं । जैसे शुद्ध स्फटिकमें अन्य रंगका प्रतिभास होनेसे उसका मूल स्वरूप दृष्टिगत नहीं होता, वैसे ही शुद्ध निर्मल यह चेतन अन्य संयोगके तादात्म्यवत् अध्याससे अपने स्वरूपके लक्ष्यको नहीं पाता । यत्किचित् पर्यायांतरसे इसी प्रकारसे जैन, वेदांत, सांख्य, योग आदि कहते हैं ।
* संवत् १९७७ में अहमदाबाद से प्रकाशित " श्रीमद् राजचन्द्र प्रणीत तत्त्वज्ञान" के सातवें संस्करण से प्राप्त यहाँ प्रस्तुत है । यह मूल हस्ताक्षरवाली संस्मरण-पोथीमें न होनेसे पाद-टिप्पण में दिया है ।.
हुआ
१. प्रत्येक प्रत्येक पदार्थका अत्यन्त विवेक करके इस जीवको उससे व्यावृत्त करें ।
२. जगतके जितने पदार्थ हैं, उनमेंसे चक्षुरिद्रियसे जो देखे जाते हैं उनका विचार करनेसे इस जीवसे वे पर हैं अथवा तो वे इस जीवके नहीं हैं, इतना ही नहीं अपितु उनपर राग आदि भाव हों तो उससे वे ही दुःखरूप सिद्ध होते हैं । इसलिये उनसे व्यावृत्त करनेके लिये निर्ग्रन्थ कहते हैं ।
३. जो पदार्थ चक्षुरिद्रियसे देखे नहीं जाते अथवा चक्षु रिद्रियसे जाने नहीं जा सकते, परन्तु प्राणेन्द्रियसे जाने जा सकते हैं, वे भी इस जीवके नहीं हैं, इत्यादि ।
४. इन दो इन्द्रियोंसे नहीं परन्तु जिनका बोध रसेंद्रियसे हो सकता है वे पदार्थ भी इस जीवके नहीं हैं, इत्यादि । ५. इन तीन इंद्रियोंसे नहीं परंतु जिनका ज्ञान स्पर्शेद्रियसे हो सकता है वे भी इस जीवके नहीं है, इत्यादि । ६. इन चार इंद्रियोंसे नहीं परंतु जिनका ज्ञान कर्णेन्द्रियसे हो सकता है, वे भी इस जीव के नहीं हैं, इत्यादि । - ७. इन पांच इंद्रियोंसहित मनसे अथवा तो किसी एक इंद्रियसहित मनसे या इन इंद्रियोंके बिना अकेले मनसे जिनका बोध हो सकता है ऐसे रूपी पदार्थ भी इस जीवके नहीं हैं, परंतु उससे पर हैं, इत्यादि ।
८, उन रूपी पदार्थोके अतिरिक्त अरूपी पदार्थ आकाश आदि हैं, जो मनसे मानें जाते हैं, वे भी आत्मा के नहीं है परन्तु उससे पर हैं, इत्यादि ।