________________
८१६
. श्रीमद् राजचन्द्र कुछ गृहव्यवहार शांत करके, परिग्रह आदि कार्यसे निवृत्त होना । अप्रमत्त गुणस्थानकपर्यंत पहुँचना । केवल भूमिका का सहजपरिणामी ध्यान- .
[संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ ६३] *धन्य रे दिवस आ अहो, जागी रे शांति अपूर्व रे; दश वर्षे रे धारा उलसी, मटयो उदय कर्मनो गर्व रे ॥ धन्य०॥ ओगणीससें ने एकत्रीसे, आव्यो अपूर्व अनुसार रे;
ओगणीससें ने बेतालीसे, अद्भुत वैराग्य धार रे ॥ धन्य० ॥
ओगणीससें ने सुडतालीसे, समकित शुद्ध प्रकाश्युं रे; श्रुत अनुभव वधती दशा, निज स्वरूप अवभास्युं रे॥ धन्य० ॥ त्यां आव्यो रे उदय कारमो, परिग्रह कार्य · प्रपंच रे, . जेम जेम ते हडसेलीए, तेम वधे न घटे एक रंच रे ॥ धन्य०॥
[संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ ६४] वधतुं एम ज चालियु, हवे दोसे क्षीण काई रे; क्रमे करीने रे ते जशे,
एम भासे मनमांहीं रे॥ धन्य० ॥ भावार्थ-अहो ! आजका दिन धन्य है, क्योंकि अपूर्व शांति प्रगट हुई है, और दस वर्षके बाद ज्ञान एवं वैराग्यकी धारा उल्लसित हुई है; और उपाधिरूप कर्मोदयका गर्व-वल नष्ट हो गया है
वि० सं १९३१ में सात वर्षकी उम्रमें जातिस्मरणज्ञान हुआ। वि० सं० १९४२ में अद्भुत वैराग्यधारा प्रगट हुई।
वि० सं० १९४७ में शुद्ध सम्यक्त्व प्रकाशित हुआ; श्रुतज्ञान और अनुभवदशा दोनोंमें वृद्धि होती गई और निजस्वरूप अवभासित हुआ।
वहाँ तो प्रवल कर्मका उदय हुआ और व्यापार घंधेकी उपाधि सिर आ पड़ी। उसे ज्यों ज्यों दूर करनेका प्रयत्न करते हैं त्यों-त्यों वह बढ़ती जाती है, मगर लेशमात्र भी कम नहीं होती।
यह उपाधि बढ़ती ही चली । अब किंचित् क्षीण हुई दीखती है; और क्रमशः यह उपाधि दूर हो जायेगी ऐसा हमें भास होता हैं।