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आभ्यंतर परिणाम अवलोकन--संस्मरण पोथी १
८११ . ऐसी कहाँसे मति भई, आप आप है नाहि ।
आपनकुं जब भूल गये, अवर' कहांसे लाई ॥ आप आप ए शोधसें, आप आप मिल जाय। [संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ ३०] आप मिलन नय बापको,
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[संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ ३३] एक बार वह स्वभुवनमें बैठा था। "प्रकाश था;-मंदता थी। "" मंत्रीने आंकर उसे कहा, आप किस विचारके लिये परिश्रम उठा रहे हैं ? वह योग्य हो तो इस दीनको बताकर उपकृत करें। . . आसवा परिसवा ननिमें मदद।
[संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ ३५] मात्र दृष्टिको भूल है, भूल गये गत एहि ॥ रचना जिन उपदेशकी,- परमोत्तम तिनु काल । इनमें सब मत रहत हैं, करते निज संभाल ॥ जिन सो ही है आतमा, अन्य होई सो कर्म। कर्म कटे सो जिन वचन, तत्त्वज्ञानीको मम ॥...
जब जान्यो निजरूपको, तब जान्यो सब लोक। .... ...'नहि जान्यो .निजरूपको, सब जान्यो सो फोक ॥ . .
एहि दिशाको मूढ़ता, है नहि जिन भाव। . ... ... ...
जिनसें भाव बिनु कबू, नहि छूटत दुःखदाव ॥ ... ... .. . हे जीव ! तुझे अपने आपको भूल जानेकी बुद्धि कहाँसे आयी ? अपने आपको तो भूल गया परन्तु देह आदि अन्यको अपना मानना कहाँसे ले आया ? ..
... तुझे आत्मभान एवं आत्मप्राप्ति तव होगी जब तू आत्मनिष्ठा तथा आत्मश्रद्धासे अपने आपकी खोज करेगा। अर्थात् जब बहिर्मुखतांकी माया छोड़कर अंतर्मुखता अपनायेगा तब आत्म-मिलनसे कृतकृत्य हो जायेगा। .
भावार्थ-अंतर्मुखी ज्ञानीके लिये आस्रव भी संवररूप तथा निर्जरारूप होते हैं यह निःसन्देह सत्य है । आत्मा वहिर्मुख-दृष्टिसे देह गेह आदिको अपना मान रहा है, यही भूल है । अंतर्मुख होनेसे यह भूलं दूर होती है, फिर कोका आस्रव और बंध दूर होकर संवर तथा निर्जरा करके मुक्त ज्ञानमयदशा प्राप्त कर जीव कृतार्थ हो जाता है।
जिनेश्वरके उपदेशकी रचना तीनों कालमें परमोत्तम है। छहों दर्शन अथवा सभी धर्म-मत अपनी अपनी संभाल करते हुए वीतरागदर्शनमें समा जाते हैं, क्योंकि वह एकांतवादी न होकर अनेकान्तवादी है। ..
.. जिन ही आत्मा है, कर्म आत्मासे भिन्न है और जिनवचन कर्मका नाशफ है. यह ममं तत्त्वज्ञानियोंने बताया है। .. यदि निजस्वरूपको जान लिया तो सब लोकको जान लिया, और यदि आत्मस्वल्पको नहीं जाना तो सब जाना हुआ व्यर्थ है, अर्थात् आत्मज्ञानके विना दूसरा सब ज्ञान निरर्थक है। . : दिशामढ़ जीवकी यही मूर्खता है कि उसे संसारफे पदार्थोसे प्रीति है, परन्तु जिनेंद्र भगवान से प्रेम नही है। पोतरागसे प्रेम किये विना संसारका दुःख कभी दूर नहीं होता। ६. पाठांतर-होत न्यूनसे न्यूनना,