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• श्रीमद् राजचन्द्र
विकराल काल ! .... विकराल कर्म ! विकराल आत्मा ! अव ध्यान रखें । यही कल्याण है ।
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[संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ २७]
इतना ही खोजा जाये तो सब मिल जायेगा; अवश्य इसमें ही है । मुझे निश्चित अनुभव है । सत्य कहता हूँ । यथार्थ कहता हूँ । निःशंक मानें
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इस स्वरूपके लिये सहज सहज किसी स्थलपर लिख मारा है ।
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[ संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ २९]
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* मारग साचा मिल गया, छूट गये संदेह होता सो तो जल गया, 'भिन्न किया निज देह ॥ समज, पिछे सब सरल है, बिन समज मुशकील | ये शकीली क्या कहूँ ? "
खोज पिंड ब्रह्मांडका, पत्ता तो लग: लाय येहि ब्रह्मांड वासना, जब जावे तब ॥ आप आपके भूल गया, इनसे क्या अंधेर १ समर समर अब हसत हैं, 'नहि भूलेंगे फेर ॥ जहाँ कलपना जलपना, तहाँ मानुं दुःख छांई । मिटे कलपना - जलपना, तब वस्तू तिन पाई ॥
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हे जीव ! क्या इच्छत हवे ? है इच्छा दुःखमूल । जब इच्छाका नाश तब, मिटे अनादि भूल ॥
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* भावार्थ - मोक्षका सच्चा मार्ग प्राप्त हुआ, जिससे सभी सन्देह दूर हो गये । मिथ्यात्वसे जो कर्मबंध हुआ करता था वह जलकर नष्ट हो गया और चैतन्यस्वरूप आत्मा कर्मसे भिन्न प्रतीत हुआ 1
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आत्मस्वरूपका बोध हो जाने के बाद सब कुछ सरल हो जाता है अर्थात् आत्मसिद्धिका मार्ग और आत्मसिद्धि दोनों एकदम स्पष्ट एवं सरल हो जाते हैं । जब तक यथार्थबोध नहीं होता तब तक मार्गप्राप्ति कठिन है । इस कठिनताकी बात क्या कहूँ ?
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अपने शरीर परमात्माकी खोज कर अर्थात् आन्तरिक खोजसे आत्मस्वरूपका अनुभव होगा और उस अनुभव के बढ़नेसे केवल ज्ञानमय दशा प्राप्त होगी जिससे ब्रह्मांड समस्त विश्वका पता चल जायेगा । यह सब तभी हो सकता है कि जब ब्रह्मांडी - वासना -- जगतकी माया दूर हो जाये ।
अहो ! यह जीव अपने आपको भूल गया है, इससे बढ़कर और क्या अंधेर होगा ? इस आत्मभ्रांति किवा आत्मविस्मृतिकी समझ आनेसे उसे हँसी आती है और वैसी भूल फिर न करनेका निश्चय करता है ।
जब तक कल्पना और जल्पना है अर्थात् मन और वचनकी दौड़ चलती है तब तक दुःख मानता हूँ। जिसकी कल्पना- जल्पना मिट जाती हैं उसे वस्तुकी प्राप्ति होती है । तात्पर्य कि आत्म-प्राप्ति के लिये मनकी स्थिरता और वाणीका संयम अनिवार्य है ।
हे जीव ! अब तू किसकी इच्छा करता है ? इच्छा मात्र दुःखका मूल है । जव इच्छाका नाश होगा तब आत्मभ्रांतिरूप अनादिकी भूल दूर होकर स्वरूपप्राप्ति होगी ।
१. मूल संस्मरण-पोथीमें ये चरण नहीं हैं, परन्तु श्रीमदूने स्वयं ही बादमें पूर्ति की है । 12२. पाठान्तर - 'दया इच्छत ? खोवत सवे ।'