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श्रीमद राजचन्द्र
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[संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ ९ ]
एक बार वह स्वभुवन में बैठा था । जगतमें कोन सुखी है, उसे जरा देखूं तो सही, फिर में अपने लिये विचार करूँगा । उसकी इस अभिलापाको पूर्ण करनेके लिये अथवा स्वयं उस संग्रहालयको देखनेके लिये बहुत से पुरुष (आत्मा) और बहुतसे पदार्थ उसके पास आये ।
'इसमें कोई जड़ पदार्थ न था । '
'कोई अकेला आत्मा देखने में नहीं आया ।'
मात्र कितने ही देहधारी थे, जो मेरी निवृत्तिके लिये आये हों ऐसी उस पुरुषको शंका हुई ।
वायु, अग्नि, पानी और भूमि इनमें से कोई क्यों नहीं आया ?
(नेपथ्य) वे सुखका विचार भी नहीं कर सकते । वे विचारे दुःखसे पराधीन हैं ।
दो इंद्रिय जीव क्यों नहीं आये ?
(नेपथ्य) उनके लिये भी यही कारण है । इस चक्षुसे देखिये। उन विचारोंको कितना अधिक दुःख है ?
उनका कम्प, उनकी थरथराहट, पराधीनता इत्यादि देखे नहीं जा सकते । वे बहुत दुःखी थे । [ संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ १०]
(नेपथ्य ) इसी चक्षुसे अव आप सारा जगत देख लें । फिर दूसरी बात करें । अच्छी बात है। दर्शन हुआ, आनन्द पाया; परन्तु फिर खेद उत्पन्न हुआ । (नेपथ्य) अव खेद क्यों करते हैं
मुझे दर्शन हुआ क्या वह सम्यक् था ?
"हाँ"
सम्यक हो तो फिर चक्रवर्ती आदि दुःखी क्यों दिखायी देते हैं ?
'जो दुःखी हो वे दुःखी, और जो सुखी हो वे सुखी दिखायी देंगे ।'
चक्रवर्ती तो दुःखी नहीं होगा ?
'जैसा दर्शन हुआ वैसी श्रद्धा करें । विशेष देखना हो तो चलें मेरे साथ । '
चक्रवर्तीके अंतःकरण में प्रवेश किया ।
अंतःकरण देखकर मैंने यह माना कि वह दर्शन सम्यक् था । उसका अंत करण बहुत दुःखी था । अनंत भय के पर्यायों से वह थरथराता था । काल आयुकी रस्सीको निगल रहा था । हड्डी-मांस में उसकी वृत्ति थी । कंकरोंमें उसकी प्रीति थी । क्रोध, मानका वह उपासक था । बहुत दुःख
[ संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ ११]
'अच्छा, क्या यह देवोंका दर्शन भी सम्यक् समझना ? 'निश्चय करनेके लिये इन्द्रके अंतःकरण में प्रवेश करें ।' चले अव
( उस इन्द्रको भव्यतासे मैं धोखा खा गया) वह भी परम दुःखी था । विचारा च्युत होकर किसी बीभत्स स्थलमें जन्म लेनेवाला था, इसलिये खेद कर रहा था । उसमें सम्यग्दृष्टि नामको देवी वसी थी । वह उसके लिये खेदमें विश्रांति थी । इस महादुःखके सिवाय उसके और अनेक अव्यक्त दुःख थे । परंतु, (नेपथ्य)—ये जड़ अकेले या आत्मा अकेले जगतमें नहीं हैं क्या ? उन्होंने मेरे आमंत्रणका सन्मान नहीं किया ।
'जड़ोंको ज्ञान न होनेसे आपका आमंत्रण वे विचारे कहाँसे स्वीकार करते ? सिद्ध (एकात्मभावी) आपका आमंत्रण स्वीकार नहीं कर सकते। उन्हें इसकी कुछ परवाह नहीं है ।'