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व्याख्यानसार - २
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गणधर = गण-समुदायका धारक; गुणधर गुणका धारक; प्रचुर = बहुत; वृष धर्म; सिरमौर :
सिरका मुकुट |
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१४. अवगाढ = मजबूत । परमावगाढ़ = उत्कृष्टरूप से मजबूत । अवगाह = एक परमाणु प्रदेश . रोकना, व्याप्त होना । श्रावक = ज्ञानीके वचनका श्रोता, ज्ञानीका वचन सुननेवाला । दर्शनं ज्ञानके बिना, क्रिया करते हुए भी, श्रुतज्ञान पढ़ते हुए भी श्रावक या साधु नहीं हो सकता । औदयिक भावसे वह श्रावक, साधु कहा जाता है; पारिणामिक भावसे नहीं कहा जाता । स्थविर = स्थिर, दृढ |
१५. स्थविरकल्प = जो साधु वृद्ध हो गये हैं उनके लिये, शास्त्रमर्यादासे वर्तन करनेका, चलनेका ' ज्ञानियों द्वारा मुकर्रर किया हुआ, बाँधा हुआ, निश्चित किया हुआ मार्ग या नियम |
१६. जिनकल्प = एकाकी विचरनेवाले साधुओंके लिये निश्चित किया हुआ अर्थात् बाँधा हुआ, • मुकर्रर किया हुआ जिनमार्ग या नियम ।
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मोरवी, आषाढ़ वदी ८, गुरु, १९५६
१. सब धर्मोकी अपेक्षा जैनधर्म उत्कृष्ट दयाप्रणीत है । दयाका स्थापन जैसा उसमें किया गया है. वैसा दूसरे किसीमें नहीं है । 'मार' इस शब्दको ही मार डालनेकी दृढ़ छाप तीर्थंकरोंने आत्मामें मारी है | इस जगहमें उपदेशके वचन भी आत्मामें सर्वोत्कृष्ट असर करते हैं । श्री जिनेन्द्रकी छाती में जीवहसाके परमाणु ही नहीं होंगे ऐसा अहिंसाधर्म श्री जिनेन्द्रका है । जिसमें दया नहीं होती वह जिनेंद्र नहीं होता । जैनके हाथसे खून होनेकी घटनाएँ प्रमाणमें अल्प होगी । जो जैन होता है वह असत्य नहीं बोलता |
२. जैनधर्मके सिवाय दूसरे धर्मोकी तुलना में अहिंसा में बौद्धधर्म भी बढ़ जाता है । ब्राह्मणोंकी यज्ञ आदि हिंसक क्रियाओं का नाश भी श्री जिनेन्द्र और बुद्धने किया है, जो अभी तक कायम है ।
३. श्री जिनेन्द्र तथा बुद्धने, यज्ञ आदि हिंसक धर्मवाले होनेसे ब्राह्मणों को सख्त शब्दों का प्रयोग करके धिक्कारा है, वह यथार्थ है ।
४. ब्राह्मणोंने स्वार्थबुद्धिसे ये हिंसक क्रियाएँ दाखिल की हैं । श्री जिनेन्द्र तथा बुद्धने स्वयं वैभवका त्याग किया था, इसलिये उन्होंने निःस्वार्थवुद्धिसे दयाधर्मका उपदेश करके हिंसक क्रियाओंका विच्छेद किया । जगतके सुखमें उनकी स्पृहा न थी ।
५. हिन्दुस्तानके लोग एक बार एक विद्याका अभ्यास इस तरह छोड़ देते हैं कि उसे फिरसे ग्रहण करते हुए उन्हें कंटाला आता है । युरोपियन प्रजामें इससे उलटा है, वे एकदम उसे छोड़ नहीं देते, परन्तु चालू ही रखते हैं । प्रवृत्तिके कारण कम-ज्यादा अभ्यास हो सके, यह बात अलग है ।
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रात में
१. वेदनीयकर्मकी जघन्य स्थिति बारह मुहूर्तकी है; उससे कम स्थितिका बंध भी कपाय के विना एक समयका होता है, दूसरे समयमें वेदन होता है और तीसरे समयमें निर्जरा होती है ।
२. ईर्यापथिकी क्रिया = चलनेकी क्रिया ।
३. एक समय में सात अथवा आठ प्रकृतियोंका बंध होता है । प्रत्येक प्रकृति उसका बटवारा किस तरह करती है इस सम्बन्धमें भोजन तथा विपका दृष्टांत :-- जैसे भोजन एक जगह लिया जाता है परंतु उसका रस प्रत्येक इन्द्रियको पहुँचता है, और प्रत्येक इन्द्रिय ही अपनी अपनी शक्तिके अनुसार ग्रहण कर