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व्याख्यानसार-२
७९३ . . . . २. यदि एक बार आत्मामें अंतर्वृत्तिका स्पर्श हो जाये, तो उसे अर्धपुद्गलपरावर्तन संसार ही रहता है यों तीर्थकर आदिने कहा है। अंतवृत्ति ज्ञानसे होती है । अंतर्वृत्ति होनेका आभास स्वतः (स्वभावसे हो) आत्मामें होता है; और वैसा होनेकी प्रतीति भी स्वाभाविक होती है। अर्थात् आत्मा 'थरमामीटर' के समान है। बुखार होनेकी और उतरनेको प्रतीति 'थरमामीटर' कराता है । यद्यपि 'थरमामीटर बुखारको आकृति नहीं बताता, फिर भी उससे प्रतीति होती है। उसी तरह अंतवृत्ति होनेकी आकृति मालूम नहीं होती फिर भी अंतवृत्ति हुई है ऐसी आत्माको प्रतीति होती है। औषध बुखारको किस तरह दूर करता है वह कुछ नहीं बताता, फिर भी औषधसे बुखार चला जाता है, ऐसो प्रतीति होती है इसी तरह अंतर्वृत्ति होनेकी प्रतीति अपनेआप ही हो जाती है। यह प्रतीति 'परिणामप्रतीति' है।
३. वेदनीयकर्म ।
४. निर्जराका असंख्यातगुना उत्तरोत्तर क्रम है । जिसे सम्यग्दर्शन प्राप्त नहीं हुआ ऐसे मिथ्यादृष्टि जीवकी अपेक्षा सम्यग्दृष्टि असंख्यातगुनी निर्जरा करता है.।२ ।
५. तीर्थंकर आदिको गृहस्थाश्रममें रहते हुए भी गाढ अथवा अवगाढ सम्यक्त्व होता है।
६. 'गाढ' अथवा 'अवगाढ' एक ही कहा जाता है । . . . . . ........ . . : ७. केवलीको 'परमावगाढ सम्यक्त्व' होता है। .. ........ ... . .
८. चौथे गुणस्थानकमें 'गाढ' अथवा 'अवगाढ' सम्यक्त्व होता है । .. . . . : .. ..९. क्षायिक सम्यक्त्व अथवा गाढ-अवगाढ सम्यक्त्व एकसा है। ... ... ..
१०. देव, गुरु, तत्त्व अथवा धर्म अथवा परमार्थकी परीक्षा करनेके तीन प्रकार हैं--(१) कष, (२) छेद और (३) तापं । इस तरह तीन प्रकारसे कसौटी होती है। इसे सोनेकी कसौटीके दृष्टान्तसे समझें। (धर्मबिंदु ग्रन्थमें है ।) पहले और दूसरे प्रकारसे किसीमें मिलनता आ सके, परन्तु तापकी विशुद्ध कसौटोसे शुद्ध मालूम हो तो वह देव, गुरु और धर्म सच्चे माने जायें।
११. शिष्यको जो कमियाँ होती हैं, वे जिस उपदेशकके ध्यानमें नहीं आती उसे उपदेश-कर्ता न समझें । आचार्य ऐसे होने चाहिये कि शिष्यका अल्प दोष भी जान सकें और उसका यथासमय बोध भी दे सकें।
। १२. सम्यग्दष्टि गृहस्थ ऐसे होने चाहिये कि जिनकी प्रतीति शत्रु भी करें, ऐसा ज्ञानियोंने कहा है। तात्पर्य कि ऐसे निष्कलंक धर्म पालनेवाले होने चाहिये । .... .
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रातम १. अवधिज्ञान और मनःपर्यायज्ञानमें अंतर ।३. . . :२. परमावधिज्ञान मनःपर्यायज्ञानसे भी बढ़ जाता है, और वह एक अपवादरूप है।
१. श्रोताको नोंघ-वेदनीयकर्मकी उदयमान प्रकृतिमें आत्मा हर्प धारण करता है, तो कैसे भावमें आत्माके भावित रहनेसे वैसा होता है इस विषयमें श्रीमद्ने स्वात्माश्रयी विचार करना कहा है।
२. इस तरह असंख्यातगुनी निर्जराका वर्धमान क्रम चौदहवें गुणस्थानक तक श्रीमद्ने वताया है, और स्वामीकार्तिककी साख दी है।
३. श्रीमदने बताया कि अवधिज्ञान और मनःपर्यायज्ञानके संबंधमें जो कयन नंदीसूममें है उससे मिल आशयवाला कथन भगवती आराधनामें है । अवधिज्ञानके टुकड़े हो सकते हैं; हीयमान इत्यादि चधि गुणस्थानकमें भी हो सकते हैं। स्यूल है, अर्थात् मनके स्थूल पर्याय जान सकता है; और दूसरा मनःपर्यायवान स्वतंत्र है; सास मनके पर्यायसंबंधी शक्तिविशेषको लेकर एक अलग तहसीलको तरह है, वह अखंड है; वप्रमत्तको ही हो सकता है, इत्यादि मुख्य मुल्य अंतर कह बताये ।