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श्रीमद राजचन्द्र
मोरबी, आषाढ वदी ४, सोम, १९५६
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१. दिगम्वरसंप्रदाय यह कहता है कि आत्मामें 'केवलज्ञान' शक्तिरूपसे रहता है ।
२. श्वेताम्बरसंप्रदाय आत्मामें केवलज्ञानको सत्तारूपसे मानता है ।
३. 'शक्ति' शब्दका अर्थ 'सत्ता' से अधिक गौण होता है ।
४. शक्तिरूपसे है अर्थात् आवरणसे रुका हुआ नहीं है, ज्यों ज्यों शक्ति बढ़ती जाती है अर्थात् उस पर ज्यों ज्यों प्रयोग होता जाता है, त्यों त्यों ज्ञान विशुद्ध होकर केवलज्ञान प्रगट होता है ।
५. सत्तामें अर्थात् आवरणमें रहा हुआ है, ऐसा कहा जाता है ।
६. सत्तामें कर्म प्रकृति हो वह उदय में आये वह शक्तिरूपसे नहीं कहा जाता ।
७. सत्तामें केवलज्ञान हो और आवरणमें न हो, यह नहीं हो सकता । 'भगवती आराधना' देखियेगा ।
जाणीव
८. कांति, दीप्ति, शरीरका मुड़ना, भोजनका पचना, रक्तका फिरना, ऊपरके प्रदेशोंका नीचे आना, नीचेके प्रदेशोंका ऊपर जाना (विशेष कारणसे समुद्घात आदि), ललाई, बुखार आना, ये सब तैजस् परमाणुकी क्रियाएँ हैं । तथा सामान्यतः आत्माके प्रदेश ऊँचे नीचे हुआ करते हैं अर्थात् कंपायमान रहते हैं, यह भी तैजस परमाणुसे होता है ।
९. कार्मणशरीर उसी स्थलमें आत्मप्रदेशोंको अपना आवरणका स्वभाव बताता है ।
१०. आत्माके आठ रुचक प्रदेश अपना स्थान नहीं बदलते । सामान्यतः स्थूल नयसे ये आठ प्रदेश नाभिके कहे जाते हैं, सूक्ष्मरूपसे वहाँ असंख्यात प्रदेश कहे जाते हैं ।
११. एक परमाणु एकप्रदेशी होते हुए भी छ: दिशाओं को स्पर्श करता है । चार दिशाएँ तथा एक ऊर्ध्व और एक अधः यह सब मिलाकर छः दिशाएँ होती हैं ।
१२. नियाणं अर्थात् निदान ।
१३. आठ कर्म सभी वेदनीय हैं, क्योंकि सबका वेदन किया जाता है; परंतु उनका वेदन लोकप्रसिद्ध नहीं होने से लोकप्रसिद्ध वेदनीयकर्म अलग माना है ।
१४. कार्मण, तैजस, आहारक, वैक्रिय और औदारिक इन पाँच शरीरोंके परमाणु एकसे अर्थात् समान हैं; परंतु वे आत्माके प्रयोग के अनुसार परिणमन करते हैं ।,
१५. मस्तिष्ककी अमुक अमुक नसें दबानेसे क्रोध, हास्य, उन्मत्तता उत्पन्न होते हैं। शरीर में मुख्य... मुख्य स्थल जीभ, नासिका इत्यादि प्रगट दिखायी देते हैं इसलिये मानते हैं; परंतु ऐसे सूक्ष्म स्थान प्रगट दिखायी नहीं देते; अतः नहीं मानते; परंतु वे हैं जरूर ।
१६. वेदनीयकर्म निर्जरारूप है, परंतु दवा इत्यादि उसमेंसे हिस्सा ले लेती है । .
१७. ज्ञानीने ऐसा कहा है कि आहार लेते हुए भी दुःख होता हो और छोड़ते हुए भी दुःख होता .. हो, तो वहाँ संलेखना करें । उसमें भी अपवाद होता है । ज्ञानीने कुछ आत्मघात करनेका नहीं कहा है । १८. ज्ञानीने अनंत औषधियाँ अनंत गुणोंसे संयुक्त देखी हैं, परंतु कोई ऐसी औषधि देखनेमें नहीं आयी कि जो मौत को दूर कर सके ! वैद्य और औषधि ये निमित्तरूप हैं ।
१९. बुद्धदेवको रोग, दरिद्रता, वृद्धावस्था और मौत, इन चार बातोंसे वैराग्य उत्पन्न हुआ था ।
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मोरवी, आषाढ वदी ५, मंगल, १९५६ १. चक्रवर्तीको उपदेश किया जाये तो वह घड़ी भरमें राज्यका त्याग कर देता है परंतु भिक्षुको अनंत तृष्णा होनेसे उस प्रकारका उपदेश उसे असर नहीं करता ।